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Showing posts from 2020

भोर के सपने (कहानी), Bhor ke Sapane (story)

                          भोर के सपने                  सपने, भोर के सपने, दादी कहती थी और माँ भी कि "भोर के सपने हमेशा सच होते हैं।"  तब मैं सोंचता था कि भोर के सपने क्या सच में सच होते हैं,  क्या दादी और मां का कहना सच है? हम जो सपने देखते हैं जिसमें केवल कुछ पलों अथवा घंटों का वृतांत होता है जिसमें उस समय तक पहुंचने का कोई आधार नहीं होता वह क्या सच में सच हो सकता है?                   आज मुझे महसूस हुआ कि भोर के सपने भले ही वास्तविक जीवन में सच हो अथवा ना हो, किंतु देखे गए सपने सच से कम भी नहीं होते। उस सपने का जो एहसास है, वह वास्तविक जीवन में कम नहीं होता। आज सुबह मैंने एक सपना देखा जिसका एहसास दिन के तीन पहर बीत जाने के बाद भी ज्यों का त्यों बना हुआ है। मेरे चेहरे की मुस्कान अभी भी ताज़ा है और मैं निरंतर उस सपने की मुस्कुराहट को वास्तविक जीवन में भी महसूस कर रहा हूं।                        पिछले कुछ समय से बहुत ही ज्यादा मोबाईल और लैपटॉप के इस्तेमाल से उकता कर मोबाईल को अपने से दस फुट दूर टेबल पर छोड़ कर सोया, वर्तमान समय की परिस्थितियों के बारे में सोचत

মনের ঘর : My Bangla poem collection

           This collection of the poems is devoted to Gagandeep mam who inspired me for Bangla language. Thanks to Swanupama Due to which it is possible and also thanks to Sayantika Ghosh to correcting me grammatically.                                                    - Madan Mohan              1.     নতুন জ্ঞান                 29 March 2020 এক দিন সকালে একটা কথা শুনলাম ছেলে বললো যে মা আজকে আমি রান্না করবো? মা বললো হ্যাঁ হ্যাঁ করতে পারো ছেলেটা খুব সুন্দর করে হাত ধুয়ে মসলা দিয়ে মাছ মাখলো মুখে হাঁসি যে ছোট বাচ্চা প্রথম দিন বিদ্যালয় যায় সে রকম খুব খুশি। দু টো মাছ ভাজতে ভাজতে খুব এরিটেট হয়ে গেলো বললো মা রান্না করা বেশ কঠিন মা বললো না রে রান্না করা কঠিন না তাড়া -তাড়ি করা কঠিন ছেলে বললো কিছু বোঝা যায় না কখনও পুড়ে যায় কখনও ভেঙে যায় কাঁচা - পাকা কিছু বোঝা যায় না মা বললো তুমি আজকে করছো আমি তিনশো পঁয়সটি দিন একই জিনিস করে  অভ্যস্ত যখন অভ্যস্ত হয়ে জাবে তুমিও করতে পারবে সেদিন আমি একটা নতুন জিনিস জানলাম কি? অনুভব সব কিছু  শেখাতে পারে? না!...... স

मेरी कविताएं

                        ठगी हुई औरत                        27 Oct. 2018 ठगी गयी औरत ठगी जाती है औरत तंगी में बचपन मे जवानी में बुढ़ापे में स्वीकार कर लिया है इसे उसके कोमलतम हृदय ने सदियों पहले और आज भी बड़ी जन्मी बेटी बेटा कहकर ठगी जाती है गुरेज़ है उन्हें बेटी कहकर सामान्य प्यार देने में जवां होती है ठगी जाती है स्वप्नलोक बता कर भेज दी जाती है सांकलों से बने चारदिवारी में ब्याह कर  ढलती उम्र के साथ ठगी जाती है बार बार कभी बेटे के ममत्व से कभी पतिव्रता सम्मान से तो कभी मेहनतकश, सामाजिक, मिलनसार, शांत, ग़मखोर जैसे शब्दों के जाल से उसने आत्मसात कर लिया है ठगी के इस जंजाल को वर्षों पहले और आज भी।                               ख़याल                        16 Feb. 2020 बहुत ही उलझन होती है तब जब सोते-जागते उठते-बैठते हर पल कोई ख़यालों में घूमता हो और मन कहे ये ख़याल ग़लत है। जब किसी का ख़याल मन पर मेघ की तरह छा जाए तब कशमकश और बढ़ जाती है इस बात से कि मेघ को बरसने को कहूँ या छंट जाने को वो भी तब जब पता हो कि मेघ का पानी किसी

पांच रुपये का स्ट्रीट रोमैंस

                      पांच रुपये का स्ट्रीट रोमैंस                             खरदाह पुस्तक मेले से निकलने पर सामने एक गली जाती थी जो मुख्य सड़क से मिलती थी। पुस्तक मेला होने के कारण आज उस गली में बहुत सी दुकानें लगी थी... टेंपरेरी दुकाने। कहीं बीस रुपये  के तीन चिकन पकोड़े मिल रहे थे तो कहीं पंद्रह रुपये के घुघनी। एक ओर चाइनीज़ फास्ट - फूड का स्टॉल था तो दूसरी ओर बंगाल के पारंपरिक पीठे और जलेबी का। एक ठेले पर लकड़ी का कांटा चम्मच और अन्य बर्तन बिक रहे थे तो एक ठेले पर हैंडमेड आर्नामेंट्स। बाएं तरफ बच्चों के खिलौने की दुकान थी तो दायीं तरफ कागज़ का सांप चलाता विक्रेता बैठा था। कुछ आगे चलने पर मोमो का टेबल था उसके दूसरी ओर पानी पूरी का ठेला। ऐसी कई दुकानों से गली भरी पड़ी थी। उसके अंत में एक बूढ़ी औरत जमीन पर जूट की बोरी बिछाए पापड़ बेच रही थी, वहीं से सफ़िया और हेमंत ने पांच रुपये का पापड़ खरीदा था और गली के मुहाने के बाएं तरफ बने पुस्तक मेले की गेट के पाए और घर की दीवार के बीच खड़े हो गए। थोड़ी रोशनी और थोड़े अंधेरे में खड़े दोनों पापड़ को देख रहे थे। पुस्तक मेले से निकलने पर हेमंत