भोर के सपने (कहानी), Bhor ke Sapane (story)





                         भोर के सपने

                 सपने, भोर के सपने, दादी कहती थी और माँ भी कि "भोर के सपने हमेशा सच होते हैं।"  तब मैं सोंचता था कि भोर के सपने क्या सच में सच होते हैं,  क्या दादी और मां का कहना सच है? हम जो सपने देखते हैं जिसमें केवल कुछ पलों अथवा घंटों का वृतांत होता है जिसमें उस समय तक पहुंचने का कोई आधार नहीं होता वह क्या सच में सच हो सकता है?
                  आज मुझे महसूस हुआ कि भोर के सपने भले ही वास्तविक जीवन में सच हो अथवा ना हो, किंतु देखे गए सपने सच से कम भी नहीं होते। उस सपने का जो एहसास है, वह वास्तविक जीवन में कम नहीं होता। आज सुबह मैंने एक सपना देखा जिसका एहसास दिन के तीन पहर बीत जाने के बाद भी ज्यों का त्यों बना हुआ है। मेरे चेहरे की मुस्कान अभी भी ताज़ा है और मैं निरंतर उस सपने की मुस्कुराहट को वास्तविक जीवन में भी महसूस कर रहा हूं।
                       पिछले कुछ समय से बहुत ही ज्यादा मोबाईल और लैपटॉप के इस्तेमाल से उकता कर मोबाईल को अपने से दस फुट दूर टेबल पर छोड़ कर सोया, वर्तमान समय की परिस्थितियों के बारे में सोचते-सोचते कब आंख लग गई पता ही नहीं चला। अचानक मैंने देखा कि मैं और एक लड़की साथ में कहीं जा रहे हैं। मैं आठवीं क्लास का स्टूडेंट था और वह भी मेरे ही क्लास में पढ़ती थी। पूरी सफेद स्कूल ड्रेस में दोनों जा रहे थे, किशोरावस्था की पूरी ऊर्जा मैं महसूस कर रहा था, हम एक खूबसूरत से घर के पास पहुंचे। घर शहरी था, जिसमें फ्लैट बने थे मैं चाबी निकालकर दरवाजा खोल रहा था तभी उसने पूछा-
- यहां तुम रेंट पर रहते हो?....... तुम्हारे दोस्त होंगे....... मैं अंदर आउंगी तो कुछ दिक्कत तो नहीं होगी?
                      तब मैंने सपने में पहली बार उसकी आवाज सुनी। इतनी मासूमियत और मिठास थी उसकी बातों में कि मेरा हाथ ताले के पास ही रुक गया। मैंने उसके बातों का जवाब दिया-
- नहीं !  यह पूरी बिल्डिंग मेरे नानाजी की है और मैं यहां रहता हूं..... मेरे दो और दोस्त भी यहां रहते हैं, पर वे अभी नहीं है।
                      मेरे वास्तविक जीवन में इस से कोई संबंध नहीं है, ऐसी बिल्डिंग मेरे किसी भी नानाजी या अन्य किसी भी रिश्तेदार की ना तो मैंने कभी देखी न सुनी और ना ही जानता हूं, और ना ही मैं को-एजुकेशन वाले स्कूल में पढ़ा जहां कभी भी ऐसे पल से गुजरा होऊं।
                       दरवाज़ा खोल कर हम दोनों भीतर गए। बायीं तरफ बाथरूम था जिसका दरवाज़ा खुला था गंदे बाथरूम को देखकर उसने कहा-
-कितना गंदा रखते हो बाथरूम, थोड़ी सफाई भी कर लिया करो......
                       इस बात की शिकायत तो मेरे वास्तविक जीवन में भी बहुत से लोगों को है कि मैं साफ-सफाई का ध्यान नहीं रखता। सपने में मैंने उसके बातों का जवाब नहीं दिया और आगे बढ़ गया। सामने हॉल था और हॉल के बाएं तरफ दो कमरे, जिसमें से एक में मैं रहता था। मैंने उससे हॉल में बैठने को कहा और अपने कमरे में चला गया। मेरे पीछे-पीछे वो भी मेरे कमरे में आ गई, मैं कुछ ढूंढ रहा था। वो आकर मेरे बेड पर पैर नीचे करके बैठ गई। मैंने एक चौड़ी और थोड़ी मोटी किताब उठा ली। मैथ की किताब। मुड़कर देखा तो वो सकुचाई सी खुद में सिमटी हुई सी बैठी थी। बाएं हाथ में किताब लिए उसके पास आया और दाहिने हाथ से उसके कंधे को छुआ। वो उचक कर दूसरी ओर खिसक गई। मैं उसके सामने आया और पूछा-
- क्या हुआ?
                         उसने कोई जवाब नहीं दिया। उसके चेहरे पर पूरी तरह से न तो डर था ना ही असहजता के भाव। दोनों के मिश्रण जैसा कुछ था और..... एक और चीज थी कुछ खूबसूरत सा जिसे बयां नहीं कर सकता, क्योंकि भावनाओं को शब्दों में पूरी तरह से बयां नहीं किया जा सकता, वह केवल वही महसूस कर सकता है जो उस पल का साक्षी हो।
                          उसका चेहरा याद है मुझे,  उस चेहरे को मैंने अपने वास्तविक जीवन में कभी नहीं देखा। यहां तक की टीवी सीरियल अथवा फ़िल्म या वेब सीरीज....... कहीं भी नहीं।  ऐसा चेहरा मेरे स्मृतियों  में झांकने पर भी कहीं नजर नहीं आता। उसके चेहरे पर न तो  मिल्की व्हाईट की परत थी और ना ही सांवलापन का एक रेशा। दोनों के मिश्रण से बना बादामी...... गुलाबी  था  उसका चेहरा।  गुलाबी चेहरा लाल हो रहा था, पर वह कुछ भी नहीं बोल रही थी। मैं बगल में बैठ गया। कुछ पल बाद उसने कहा-
- ऐसा ही होता है हमेशा, कुछ समझ में नहीं आता। जब भी तुम्हारे साथ होती हूं मेरी धड़कनें बढ़ जाती है, तेज..... बहुत तेज।
   मैंने मजाकिया अंदाज में कहा-
- अच्छा….....
                   और किताब के एक तरफ अपना हाथ रख कर दूसरी तरफ को उसके सीने से लगा दिया। तब मुझे उसकी  धड़कने महसूस हुई, जो उसके दिल से निकलकर किताब के लगभग 250 पन्नों से गुज़रती हुई मेरे हाथ तक पहुंची थी। मैंने कहा-
- यह तो कमाल हो गया सच में तेरी धड़कने तेज चल रही है।
                     वो मेरी तरफ देखी, एक हाथ से मेरा हाथ पकड़ा और दूसरे हाथ से किताब को बिस्तर पर रख दी। उसने मेरे हाथ को अपने दिल पर रखा और बोली-
- मेरी धड़कनों को डायरेक्ट महसूस करो।
                     उसके दिल से निकली धड़कन जब डायरेक्ट मेरे हाथ तक पहुंची तो ऐसा लगा जैसे ये दिल मेरे ही भीतर कहीं धड़क रहा हो। उसके हृदय को स्पर्श करते ही उसके मन की कोमलता और मासूमियत मेरे मन तक पहुंचने लगी। बहुत ही अलग..... बहुत कुछ महसूस हो रहा था। मैं बता नहीं सकता.....  कहा न भावनाओं को शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। मैंने हाथ हटाया और उसकी तरफ देखा उसने कहा-
- बहुत अजीब लगता है, मैं बोल नहीं पा रही। तुम्हारे साथ होती हूं तो एक अजीब सा डर लगता है......  कुछ भी याद नहीं रहता...   सांसे तेज हो जाती है मेरी। अभी....... अभी भी बहुत तेज है और धड़कन वैसे ही तेज चल रही है।
                       मैं इन बातों को ऐसे ही मजाक में ले रहा था और मजाकिया अंदाज में बोला-
-अच्छा सच में..... अभी भी तेज है......?
                        वास्तव में मैं उसे हंसाने की कोशिश कर रहा था। उसने कहा-
- चेक कर लो......
                          मैंने फिरसे किताब उठाई और पहले की ही तरह उसके दिल पर रखा। उसने फिरसे किताब हटाया और मेरा हाथ अपने दिल पर रखा। इसबार वो मेरा हाथ पकड़े हुए ही बोलने लगी-
- मैंने बहुत बार सोचा कि तुम से बोलूं, पर बोल नहीं पाई। इसलिए आज किताब लेने के लिए तुम्हारे साथ यहां आई कि तुम से अकेले में बात करूंगी।
                           मैंने धीरे से हाथ खींचा और उसे देखता रहा। एक शून्य का एहसास हो रहा था, पर उस शून्य में कुछ था जो मुझे खींच रहा था। वह बहुत कुछ बोलती रही पर मुझे कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था। मैंने अपने आप को उस शून्य से बाहर खींचा और किताब लेकर पहले की तरह ही दोहराने लगा। मैं उसे एरिटेट करना चाह रहा था ताकि वो अपनी बातों में न डूब कर मुझसे सामने से बात करे। उसने मेरे हाथ से खिताब छीन कर बिस्तर पर रखते हुए बोली-
- तुम्हें मजाक लग रहा है।  मेरी भावनाओं को समझो न..... मैं बार-बार कह रही हूं मेरी धड़कनों को डायरेक्ट सुनो......  तुम मेरे - तुम्हारे बीच में ये बुक क्यों ला रहे हो?
                      मैं शांत हो गया। चुप रहा। आगे  उसने बहुत ही शालीनता से पूछा-
- तो बताओ......  मैं अच्छी नहीं लगती तुम्हे?..... तुम मुझे पसंद नहीं करते?
                     मैं हाँ कहना चाहता था पर एक बारगी हाँ नहीं कह पाया। मैंने अपने मन की व्यथा उसके सामने रखी। मैंने कहा-
- मेरे चाहने या ना चाहने से क्या होगा?........ मैं तुम्हारे जितना  लंबा बोल भी नहीं सकता। मैं तुम्हें पसंद करता हूं पर तुम इतनी सुंदर हो, इतनी क्यूट हो, तुम मुझे क्यों पसंद करने लगी। मैं तो बस इतना ही जानता हूं कि मेरे जैसे बेकार शक्ल वाले लड़के को कौन लड़की पसंद करेगी और तुम्हारी जैसी खूबसूरत तो बिल्कुल भी नहीं।
-  तुम बस यह बताओ कि तुम मुझे पसंद करते हो?....... प्यार करोगे मुझसे?
- हां!
- तो अब हम दोनों दोस्त नहीं रहे।
- क्यों?... ये क्या बोल रही हो....
- अब हम गर्लफ्रेंड - बॉयफ्रेंड हैं ।
               उस ने मुस्कुराते हुए कहा। मैं बहुत खुश था। मैंने कहा-
- चलो आज पार्टी करते हैं।
                 दोनों ने अपने-अपने बैग उठाए, गले मिले और घर से बाहर निकल गए। बाजार में जाकर पहले गोलगप्पे फिर आइस - गोला खाया। पेस्ट्री की दुकान पर पहुंच कर एक पेस्ट्री ली, दोनों ने मिलकर चम्मच से पेस्ट्री को काटा। पेस्ट्री खाने के बाद आइसक्रीम खाते हुए चल रहे थे तभी उसने कहा-
-भूलना मत........
- इस पल को और तुम्हें मैं कभी नहीं भूल सकता।
- बुक........ बुक लाना मत भूलना। कल याद से ले कर आना।
                     मेरे आंखों में गणित के उस किताब की तस्वीर आ गई जो उसने मेरे हाथों से लेकर बिस्तर पर रखा था।
                    स्कूल छोड़ने के 14 सालों बाद यह सपना देखते हुए जब मेरी नींद खुली तो मैं वैसे ही खुशी से मुस्कुरा रहा था, घड़ी देखा तो सुबह के 5:30 बज रहे थे।
                      सोने से पहले रात में मैं सुनील गंगोपाध्याय लिखित रबिन्द्रनाथ के जीवन पर आधारित पुस्तक 'रानू व भानु' पढ़ रहा था, जिसके प्रथम पृष्ठ पर एक पत्र में रबिन्द्रनाथ की पाठिका 'इति रानू' ने उन्हें उनके कहानियों में कुछ बदलाव करने को कहा था। उसके शब्दों में मासूमियत के साथ एक अनजाना सा हक झलकता है। यह किताब मेरे एक बहुत ही प्रिय मित्र ने मुझे हमेशा के लिए तो नहीं पर कुछ समय के लिए गिफ्ट किया यह कहते हुए कि "कुछ दिन हिंदी फॉन्ट से दूर होकर इस बांग्ला फॉन्ट को पढ़ो।"

                                              - मदन मोहन
                                       दिनांक : 09 मई 2020



Comments

  1. Achhi Story.. .... Plat aur words dono sapano ki dunia me le gye

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  2. Kitab k pehele panne pard kar ye haal... Kiya pata puri kitab parte parte khud hi na galpakar baan jau... Tumhare dost mujhe acha laga... Samajdar laga ..... Uske wajase tum 14 saal baad phir se school life k pehela pehela pyar ko mehsos kar sake, sapne bhi tou apne he... Aisa mitro sabko nhi milta. ... Tum bohot khush nasib ho... Yus kitab ko pardo aur phir se swapno me dub jao... Hum aise lekhani pardhne k intezar me rehenge... Good wishes🥰

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