मेरी कविताएं
ठगी हुई औरत
27 Oct. 2018
ठगी गयी औरत
ठगी जाती है औरत
तंगी में
बचपन मे
जवानी में
बुढ़ापे में
स्वीकार कर लिया है
इसे
उसके कोमलतम हृदय ने
सदियों पहले
और आज भी
बड़ी जन्मी बेटी
बेटा कहकर
ठगी जाती है
गुरेज़ है
उन्हें
बेटी कहकर
सामान्य प्यार देने में
जवां होती है
ठगी जाती है
स्वप्नलोक बता कर
भेज दी जाती है
सांकलों से बने
चारदिवारी में ब्याह कर
ढलती उम्र के साथ
ठगी जाती है
बार बार
कभी बेटे के ममत्व से
कभी पतिव्रता सम्मान से
तो कभी
मेहनतकश, सामाजिक, मिलनसार, शांत, ग़मखोर जैसे शब्दों के जाल से
उसने
आत्मसात कर लिया है
ठगी के
इस जंजाल को
वर्षों पहले
और आज भी।
ख़याल
16 Feb. 2020
बहुत ही उलझन होती है तब
जब
सोते-जागते
उठते-बैठते
हर पल
कोई
ख़यालों में घूमता हो
और
मन कहे
ये ख़याल ग़लत है।
जब
किसी का ख़याल
मन पर
मेघ की तरह छा जाए
तब
कशमकश और बढ़ जाती है
इस बात से
कि मेघ को
बरसने को कहूँ
या
छंट जाने को
वो भी तब
जब पता हो
कि मेघ का पानी
किसी और के लिए है।
जल्द मुलाक़ात होगी
22 Feb. 2020
एक उलझन है
मन मे
जो आंखों तक छलक आती है
तेरी बातें
मन की प्यास बढ़ाती है
बेशक
अभी दूर हूँ
पर जल्द मुलाक़ात होगी
मैं
तेरे पास होऊंगा
तू मेरे पास होगी
इज़हार
मन की बातें कर पाऊंगा
या नहीं
रब ही जाने
तुझे
मैं पसंद हूँ भी
या नहीं
रब ही जाने
डरता हूँ
कुछ भी कहने से
कहीं तुझे
खो न दूँ
तेर रूठ जाने की जुदाई में
कहीं
रो न दूँ
बेशक
अभी दूर हूँ
पर
जल्द मुलाक़ात होगी
मेरी बेचैन निगाहें
और
तेरी मीठी आवाज़
एक साथ होगी
कोई तरक़ीब नहीं
04 march 2020
तू
विचलित होती है
तो सांसों की गति
बढ़ जाती है
मेरी
तेरे माथे की शिकन,
तेरे आँखों का तपन
हृदय की
तरंगें बन जाती है
मेरी
पास तो हूँ
तेरे
पर करीब नहीं
हाल-ए-दिल
जो बयां कर दे
मेरे पास
ऐसी
कोई तरकीब नहीं
चश्मे के पार
05 March 2020
ग़मों से भरी
आंखें तेरी
चश्मे के पार
साफ झलकती है
छुपे हैं
दर्द
दिल मे तेरे
साफ झलकती है
चुटकी बजा कर
मैं
तेरी तकलीफें
दूर तो नहीं कर सकता
पर
कोशिश रहेगी
हमेशा मेरी
दो पल के लिए ही सही
दिल मे सुकूँ
और
उन आंखों में
खुशी ला सकूँ
जो
साफ झलकती है
चश्मे के पार तेरे
आंखों का इशारा
07 March 2020
वो समझ नहीं पा रहे
आंखों का
इशारा मेरा
या फिर
मैं
समझा नहीं पा रहा
शायद
मेरे इशारे ही कमज़ोर हैं
या, वो
इस तरफ़
देख ही नहीं रहे
वैसे
मालूम है मुझे
उनकी नज़रें
हैं कहीं और
फिर भी न जाने क्यूँ
मेरी निगाहें
करती है
इशारा
इनसब से बेखबर हैं वो
और मैं भी
चारदीवारी
11 March 2020
आज भर उठा मेरा दिल
दिन भर
व्यस्तता भरी
मुस्कुराहट के बाद
जब लौटता हूँ
मकान में
चारदीवारी के अलावा
कुछ भी नज़र नहीं आता
अपना सा लगता है
वो घर
जहाँ खुलकर मुस्कुरा पता हूँ मैं।
आज है ऐसी ही एक रात
जब लौटा मैं
इस चारदीवारी में
दिन भर की मुस्कान
और खिलखिलाहट के बाद
कुछ याद आये पुराने लम्हें
याद आयी पुरानी बातें
और भर उठा मेरा दिल
इस बेजान सी
अंधेरे भरी रात में
अनचाही दूरियों की गाँठ
24 March 2020
आज पहली बार
उन्हें मैंने
रोते देखा
जायज़ है
इश्क़ के आंसू आसानी से नहीं निकलते
लेकिन
जब निकलते हैं
तो
दर्द बहुत होता है
उन्हें भी हुआ
और
मुझे भी
वैसे
वो
मेरी अमानत तो नहीं
न ही कोई रिश्ता
मेरा उनसे
नहीं नहीं
उनकी आंसू
मेरे लिए नहीं थी
था कोई
उनका अपना
जिसने दर्द दिया
उनका ग़म
बस इतना है
कि उनका प्यार बचपना नहीं था
और
मेरा ग़म
कि
उनके ग़म में
चाहते हुए भी
शरीक़ नहीं हो सकता
वो
मेरी अमानत नहीं
कोई रिश्ता भी नहीं
बस
एक
अनचाही दूरियों की
गाँठ से बनी
भावनाओं का बंधन है
दायित्व
05 April 2020
चेहरे पर स्माईल नहीं है!
सारा संसार रो रहा है
और मैं स्माईल करूँगा?
मैं संसार के साथ हूँ।
किन्तु
संसार के दुःख में शामिल होने के लिए
खुद का दायित्व भूल जाऊंगा..?
हाँ मैं भूल गया
मेरा दायित्व,
दायित्व
तुम्हारे लिए
मैं भूल गया
संसार मे तुम भी हो
क्षमा करदो
मेरी जीवन संगिनी
मैं भूल गया
कि
तुम ही मेरा संसार हो।
मोड़ : एक उलझन
16 January 2012
जाने क्या मंज़िल हो इस मोड़ के आगे
कहीं उलझ न जाएं सपनों के धागे
अच्छी खासी चल रही थी जिंदगी मेरी
तभी चुपके से राह में एंट्री हुई तेरी
तुझे देख लगा मेरे दिल के भाग जागे
तुझे देखते ही सारे सपने गया भूल
आंखों में जब पड़ी तेरे आकर्षण की धूल
तेरे प्यार में दिल दीवाना लागे
जाने क्या मंजिल हो इस मोड़ के आगे
कहीं उलझ न जाएं सपनों के धागे
तेरे आने से पहले कितने ही ख़्वाब बुनता था
उन्हें सच करने को अनेकों उपाय ढूंढता था
अब तो सारे सपने भी अंजाना लागे
दो अच्छे कदम लड़ रहे हैं मेरे अंदर
समझ नहीं आता आकाश चुनूं या समंदर
दोनों की चाहत एक साथ हैं जागे
जाने क्या मंजिल हो इस मोड़ के आगे
कहीं उलझ न जाएं सपनों के धागे
आकाश पाने की चाहत छोड़ सकता नहीं
समंदर को कैसे छोड़ दूं हमेशा यह मिलता नहीं
यह कैसी उलझन भरी ख़्वाहिश हैं जागे
यह मोड़ न जाने कौन सा दिन दिखाएगा
लहरों में डुबोयेगा या तारों सा चमकाएगा
डर लगता है कहीं दोनों ही न रुठ भागे
जाने क्या मंजिल हो इस मोड़ के आगे
कहीं उलझ न जाएं सपनों के धागे
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