समाजकार्य के दर्शन एवं मूल्य
समाज कार्य के दर्शन एवं मूल्य
समाज कार्य के दर्शन का तात्पर्य है कि इसके अर्थ और ज्ञान का वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुतिकरण करते हुए इसके आदर्शों और मूल्यों का सही ढंग से निरूपण किया जाय।
समाज-कार्य या समाजसेवा एक शैक्षिक एवं व्यावसायिक विधा है जो सामुदायिक सगठन एवं अन्य विधियों द्वारा लोगों एवं समूहों के जीवन-स्तर को उन्नत बनाने का प्रयत्न करता है। सामाजिक कार्य का अर्थ है सकारात्मक, और सक्रिय हस्तक्षेप के माध्यम से लोगों और उनके सामाजिक माहौल के बीच अन्तःक्रिया प्रोत्साहित करके व्यक्तियों की क्षमताओं को बेहतर करना ताकि वे अपनी ज़िंदगी की ज़रूरतें पूरी करते हुए अपनी तकलीफ़ों को कम कर सकें। इस प्रक्रिया में समाज-कार्य लोगों की आकांक्षाओं की पूर्ति करने और उन्हें अपने ही मूल्यों की कसौटी पर खरे उतरने में सहायक होता है।
समाज-कार्य का अधिकांश ज्ञान समाजशास्त्रीय सिद्धांतों से लिया गया है, लेकिन समाजशास्त्र जहाँ मानव-समाज और मानव-संबंधों के सैद्धांतिक पक्ष का अध्ययन करता है, वहीं समाज-कार्य इन संबंधों में आने वाले अंतरों एवं सामाजिक परिवर्तन के कारणों की खोज क्षेत्रीय स्तर पर करने के साथ-साथ व्यक्ति के मनोसामाजिक पक्ष का भी अध्ययन करता है। समाज-कार्य करने वाले कर्त्ता का आचरण विद्वान की तरह न होकर समस्याओं में हस्तक्षेप के ज़रिये व्यक्तियों, परिवारों, छोटे समूहों या समुदायों के साथ संबंध स्थापित करने की तरफ़ उन्मुख होता है। इसके लिए समाज-कार्य का अनुशासन पूर्ण रूप से प्रशिक्षित और पेशेवर कार्यकर्ताओं पर भरोसा करता है।
इंग्लैण्ड और संयुक्त राज्य अमेरिका में पहले चर्च के माध्यम से ही जन-कल्याणकारी कार्य किये जाते थे। धीरे-धीरे स्थिति बदली और जन-सहायता को विधिक रूप प्रदान किया जाने लगा। इंग्लैण्ड में 1536 में एक कानून बना जिसमें निर्धनों की सहायता के लिए कार्य-योजना बनायी गयी।
अट्ठारहवीं सदी में औद्योगिक क्रांति के बाद इंग्लैण्ड और अमेरिका में सरकारों द्वारा निर्धनों व अशक्तों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए कई कानूनों का निर्माण किया गया। व्यक्तियों का मनोसामाजिक पक्ष सुधारने हेतु 1869 में लंदन चैरिटी संगठन तथा अमेरिका में 1877 में चैरिटी ऑर्गनाइजेशन सोसाइटी ने पहल ली। इन संस्थाओं ने समुचित सहायता करने के लिए ज़रूरतों की पड़ताल तथा संबंधित व्यक्तियों का पंजीकरण करना प्रारम्भ किया। इस प्रक्रिया में मनोसामाजिक स्थिति सुधारने के लिए बातचीत करना एवं भौतिक सहायता को भी शामिल किया। यह एक ऐसी प्रक्रिया थी जिसके ज़रिये संस्था के कार्यकर्त्ता अपने पास आये व्यक्ति अर्थात् सेवार्थी को स्वावलम्बी बनाते थे। धीरे- धीरे इस प्रक्रिया ने सुचिंतित प्रणालीबद्ध रूप ग्रहण कर लिया। 1887 में न्यूयॉर्क में कार्यकर्त्ताओं को इन कामों के लिए प्रशिक्षण देना प्रारम्भ किया गया। अमेरिका में इस प्रकार के प्रशिक्षण हेतु 1910 में दो वर्ष का पाठ्यक्रम शुरू हुआ।
भारत में भी समाज-कल्याण हेतु राजाओं द्वारा दान देने का चलन था, यज्ञ करवाये जाते थे एवं धर्मशालाओं इत्यादि का निर्माण होता था। अट्ठारहवीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप होने वाले सुधार कार्यक्रमों ने भारतीय जनमानस को प्रभावित किया और ईश्वरचंद विद्यासागर तथा राजा राममोहन राय वग़ैरह के प्रयासों द्वारा विधवा विवाह प्रारम्भ हुआ और सती प्रथा पर रोक लगी। इसके अतिरिक्त गोपाल कृष्ण गोखले, एनी बेसेंट आदि ने भारत में आधुनिक समाज सुधारों को नयी दिशा दी। 1905 में गोखले ने सर्वेंट्स ऑफ़ इण्डिया की स्थापना करके स्नातकों को समाज सेवा के लिए प्रशिक्षण देना प्रारम्भ किया। इन प्रशिक्षुओं को वेतन भी दिया जाता था। इस तरह इंग्लैण्ड, अमेरिका तथा भारत में समाज-कल्याण के लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु समाज-कार्य की नींव पड़ी जिसके तहत सामाजिक कार्यकर्त्ता व्यक्ति की पूर्ण सहायता हेतु प्रशिक्षण प्राप्त करता है। 1936 में भारत में समाज-कार्य के शिक्षण एवं प्रशिक्षण हेतु बम्बई में सर दोराब जी टाटा ग्रेजुएट स्कूल ऑफ़ सोशल वर्क की स्थापना हुई। आज देश में सौ से भी अधिक संस्थानों में समाज-कार्य की शिक्षा दी जाती है। समाज-कार्यकर्ता केवल उन्हीं को कहा जाता है जिन्होंने समाज-कार्य की पूरी तरह से पेशेवर शिक्षा प्राप्त की हो, न कि उन्हें जो स्वैच्छिक रूप से समाज कल्याण का कार्य करते हैं। स्वैच्छिक समाज- कल्याण के प्रयासों को समाज-सेवा की संज्ञा दी जाती है और इन गतिविधियों में लगे लोग समाज-सेवी कहलाते हैं।
दर्शन सामाजिक जीवन के मौलिक सिद्धांतों और धारणाओं की व्याख्या करता है। दर्शन सामाजिक संबंधों के सर्वोच्च आदर्शों का निरूपण करता है। समाज कार्य मानवजीवन को अधिक सुखमय तथा प्रकार्यात्मक बनाने का संकल्प रखता है। इसलिए समाज कार्य को वास्तविक होने के लिए दार्शनिक होना आवश्यक है
दर्शन शब्द का अंग्रेजी रूपांतर “फ़िलासफ़ी” शब्द ग्रीक भाषा का शब्द है। “फिला” का अर्थ है प्रेम और “सोफिया” का अर्थ है बुद्धिमत्ता। इस प्रकार फ़िलासफ़ी का अर्थ हुआ “बुद्धिमत्ता से प्रेम”। बुद्धिमत्ता का तात्पर्य सत्य और ज्ञान के अनवरत खोज से है। इसलिए दर्शन का तात्पर्य किसी भी विषय विशेष के संदर्भ में सत्या और ज्ञान के निरंतर खोज और इस संबंध में प्राप्त तथ्यों को वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुतिकरण से है। समाज कार्य व्यक्तियों (व्यक्ति, समूह और समुदाय) के बीच समानता चाहता है।
समाजकार्य का दर्शन हर्बट विस्नो ने दिया है, जिसमें से व्यक्ति के प्रकृति, समूह तथा सामाजिक परिवर्तन के सबंध में दिया गया दर्शन बहुत ही रूचिकर तथा व्यावहारिक है।
हालांकि व्यक्ति के जीवन संबंधी अनेक मतभेदों के कारण समाजकार्य दर्शन के संबंध में भी मतभेद हैं क्योंकि विभिन्न देशों में जीवन की दशाएँ भी भिन्न-भिन्न हैं चाहे वह सामाजिक, आर्थिक हों या भौतिक और स्वास्थ्य संबंधी दशाएँ। इन्हीं सब कारणों से समाज कार्य दर्शन पर कोई सर्वसम्मति नहीं बन सकी है। जैसे समाज कार्य की कोई एक परिभाषा नहीं दी जा सकती जो सभी देश, काल, और समाज में समान रूप से लागू हो सके उसी तरह समाज कार्य का दर्शन भी किसी देश व समाज में समान रूप से लागू नहीं हो सकता। इसका एक प्रमुख कारण संस्कृतियों के रूपों में परिवर्तन भी है क्योंकि दर्शन में संस्कृति की स्पष्ट छाप रहती है। इसीलिए किसी भी देश का समाज कार्य दर्शन उस देश की जीवन संबंधी वास्तविकताओं और आवश्यकताओं पर आधारित दर्शन होगा। हर्बर्ट बिस्नो ने समाज कार्य द्वारा अपना एक दर्शन न प्रतिपादित करने के 3 प्रमुख कारण बताएँ हैं-
1- समाज कार्य व्यवसाय का नवीन होना।
2- सेवार्थी, सेवार्थी समूह के समक्ष अपनी कार्य पद्धतियों व प्रविधियों का विवरण प्रस्तुत करने में समाज कार्यकर्ता द्वारा कठिनाई महसूस किया जाना।
3- सामाजिक कार्यकर्ताओं और समाज कार्य के प्रयोजितों (प्रायोजकों) में समाज कार्य की दार्शनिक दिशा के संबंध में मतभेद का होना।
व्यक्ति के प्रकृति के संबंध में समाजकार्य का दर्शन :
1. प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में महान तथा संभावनाओं से भरा हुआ है, अतः उसकी सहायता करनी चाहिए।
2. मानवीय पीड़ा अवांछनीय है, अतः इसे दूर करना ही चाहिए ।
3. मानव जन्मजात रूप से पशु के समान अनैतिक तथा असामाजिक होता है तथा उसमें सीखने की प्रक्रिया महत्वपूर्ण है।
4. व्यक्ति के प्रारंभिक विकास में पारिवारिक संबधों का आधारभूत महत्व होता है।
5. मानव स्वभाव से ही विवेकपूर्ण कार्य नहीं करता।
6. प्रत्येक व्यक्ति का गुण तथा क्षमता अलग-अलग होती है, अतः मतभेद बिल्कुल स्वभाविक है, इसे स्वीकार करना चाहिए।
समूह के सबंध में समाजकार्य का दर्शन :
1. समाजकार्य "हस्तक्षेप न करने" तथा "योग्यतम् की उत्तरजीविता " सिद्धांत को नहीं मानता।
2.समाजकार्य यह भी स्वीकार नहीं करता कि धनी व शक्तिशाली व्यक्ति योग्य तथा निर्धन व निर्बल व्यक्ति अयोग्य होता है।
3. समुदाय पर स्वयं तथा अपने सदस्यों के कल्याण व विकास करने का मौलिक उत्तरदायित्व होता है।
4. जनसाधारण के रोजगार, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा तथा स्वतंत्रता की रक्षा आदि का उत्तरदायित्व राज्य का होता है।
सामाजिक परिवर्तन के संबंध में समाजकार्य का दर्शन :
1. किसी भी समाज में क्रमिक विकास द्वारा ही सुधार लाना संभव है।
2. सामाजिक नियोजन लोकतांत्रिक आधार पर होना चाहिए।
3. सामाजिक कार्यकर्ता को अपने संस्कृति पर इस प्रकार ध्यान देना चाहिए जैसे गंभीर राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक कुसमायोजन व्याप्त है।
समाज कार्य व्यवसाय के अंतर्गत कार्य करने वाला सामाजिक कार्यकर्ता अपने कार्य अनुभव से कुछ आदर्श और मूल्यों को विकसित करता है। समाज कार्य के अर्थ में जब इन आदर्शों व मूल्यों को एक तर्क संगत प्रणाली के तहत स्थापित किया जाता है तो वह समाज कार्य दर्शन बन जाता है।
संदर्भ
1. कक्षा व्याख्यान। : डॉ. अनुपमा राय
2. समाज कार्य। : तेजस पांडेय ओजस पांडेय
भारत बुक सेंटर, अशोक मार्ग लखनऊ
3. समाज कार्य का सौंदर्य। : गूगल सर्च
4.समाज कार्य का मूल्य : गूगल सर्च
यह लेख पूर्णतः मौलिक नही है। जानकारियों के इकट्ठा करके एक स्थान पर रखा गया है ताकि पाठकों को सुविधा हो।
समाज कार्य के दर्शन का तात्पर्य है कि इसके अर्थ और ज्ञान का वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुतिकरण करते हुए इसके आदर्शों और मूल्यों का सही ढंग से निरूपण किया जाय।
समाज-कार्य या समाजसेवा एक शैक्षिक एवं व्यावसायिक विधा है जो सामुदायिक सगठन एवं अन्य विधियों द्वारा लोगों एवं समूहों के जीवन-स्तर को उन्नत बनाने का प्रयत्न करता है। सामाजिक कार्य का अर्थ है सकारात्मक, और सक्रिय हस्तक्षेप के माध्यम से लोगों और उनके सामाजिक माहौल के बीच अन्तःक्रिया प्रोत्साहित करके व्यक्तियों की क्षमताओं को बेहतर करना ताकि वे अपनी ज़िंदगी की ज़रूरतें पूरी करते हुए अपनी तकलीफ़ों को कम कर सकें। इस प्रक्रिया में समाज-कार्य लोगों की आकांक्षाओं की पूर्ति करने और उन्हें अपने ही मूल्यों की कसौटी पर खरे उतरने में सहायक होता है।
समाज-कार्य का अधिकांश ज्ञान समाजशास्त्रीय सिद्धांतों से लिया गया है, लेकिन समाजशास्त्र जहाँ मानव-समाज और मानव-संबंधों के सैद्धांतिक पक्ष का अध्ययन करता है, वहीं समाज-कार्य इन संबंधों में आने वाले अंतरों एवं सामाजिक परिवर्तन के कारणों की खोज क्षेत्रीय स्तर पर करने के साथ-साथ व्यक्ति के मनोसामाजिक पक्ष का भी अध्ययन करता है। समाज-कार्य करने वाले कर्त्ता का आचरण विद्वान की तरह न होकर समस्याओं में हस्तक्षेप के ज़रिये व्यक्तियों, परिवारों, छोटे समूहों या समुदायों के साथ संबंध स्थापित करने की तरफ़ उन्मुख होता है। इसके लिए समाज-कार्य का अनुशासन पूर्ण रूप से प्रशिक्षित और पेशेवर कार्यकर्ताओं पर भरोसा करता है।
इंग्लैण्ड और संयुक्त राज्य अमेरिका में पहले चर्च के माध्यम से ही जन-कल्याणकारी कार्य किये जाते थे। धीरे-धीरे स्थिति बदली और जन-सहायता को विधिक रूप प्रदान किया जाने लगा। इंग्लैण्ड में 1536 में एक कानून बना जिसमें निर्धनों की सहायता के लिए कार्य-योजना बनायी गयी।
अट्ठारहवीं सदी में औद्योगिक क्रांति के बाद इंग्लैण्ड और अमेरिका में सरकारों द्वारा निर्धनों व अशक्तों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए कई कानूनों का निर्माण किया गया। व्यक्तियों का मनोसामाजिक पक्ष सुधारने हेतु 1869 में लंदन चैरिटी संगठन तथा अमेरिका में 1877 में चैरिटी ऑर्गनाइजेशन सोसाइटी ने पहल ली। इन संस्थाओं ने समुचित सहायता करने के लिए ज़रूरतों की पड़ताल तथा संबंधित व्यक्तियों का पंजीकरण करना प्रारम्भ किया। इस प्रक्रिया में मनोसामाजिक स्थिति सुधारने के लिए बातचीत करना एवं भौतिक सहायता को भी शामिल किया। यह एक ऐसी प्रक्रिया थी जिसके ज़रिये संस्था के कार्यकर्त्ता अपने पास आये व्यक्ति अर्थात् सेवार्थी को स्वावलम्बी बनाते थे। धीरे- धीरे इस प्रक्रिया ने सुचिंतित प्रणालीबद्ध रूप ग्रहण कर लिया। 1887 में न्यूयॉर्क में कार्यकर्त्ताओं को इन कामों के लिए प्रशिक्षण देना प्रारम्भ किया गया। अमेरिका में इस प्रकार के प्रशिक्षण हेतु 1910 में दो वर्ष का पाठ्यक्रम शुरू हुआ।
भारत में भी समाज-कल्याण हेतु राजाओं द्वारा दान देने का चलन था, यज्ञ करवाये जाते थे एवं धर्मशालाओं इत्यादि का निर्माण होता था। अट्ठारहवीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप होने वाले सुधार कार्यक्रमों ने भारतीय जनमानस को प्रभावित किया और ईश्वरचंद विद्यासागर तथा राजा राममोहन राय वग़ैरह के प्रयासों द्वारा विधवा विवाह प्रारम्भ हुआ और सती प्रथा पर रोक लगी। इसके अतिरिक्त गोपाल कृष्ण गोखले, एनी बेसेंट आदि ने भारत में आधुनिक समाज सुधारों को नयी दिशा दी। 1905 में गोखले ने सर्वेंट्स ऑफ़ इण्डिया की स्थापना करके स्नातकों को समाज सेवा के लिए प्रशिक्षण देना प्रारम्भ किया। इन प्रशिक्षुओं को वेतन भी दिया जाता था। इस तरह इंग्लैण्ड, अमेरिका तथा भारत में समाज-कल्याण के लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु समाज-कार्य की नींव पड़ी जिसके तहत सामाजिक कार्यकर्त्ता व्यक्ति की पूर्ण सहायता हेतु प्रशिक्षण प्राप्त करता है। 1936 में भारत में समाज-कार्य के शिक्षण एवं प्रशिक्षण हेतु बम्बई में सर दोराब जी टाटा ग्रेजुएट स्कूल ऑफ़ सोशल वर्क की स्थापना हुई। आज देश में सौ से भी अधिक संस्थानों में समाज-कार्य की शिक्षा दी जाती है। समाज-कार्यकर्ता केवल उन्हीं को कहा जाता है जिन्होंने समाज-कार्य की पूरी तरह से पेशेवर शिक्षा प्राप्त की हो, न कि उन्हें जो स्वैच्छिक रूप से समाज कल्याण का कार्य करते हैं। स्वैच्छिक समाज- कल्याण के प्रयासों को समाज-सेवा की संज्ञा दी जाती है और इन गतिविधियों में लगे लोग समाज-सेवी कहलाते हैं।
दर्शन सामाजिक जीवन के मौलिक सिद्धांतों और धारणाओं की व्याख्या करता है। दर्शन सामाजिक संबंधों के सर्वोच्च आदर्शों का निरूपण करता है। समाज कार्य मानवजीवन को अधिक सुखमय तथा प्रकार्यात्मक बनाने का संकल्प रखता है। इसलिए समाज कार्य को वास्तविक होने के लिए दार्शनिक होना आवश्यक है
दर्शन शब्द का अंग्रेजी रूपांतर “फ़िलासफ़ी” शब्द ग्रीक भाषा का शब्द है। “फिला” का अर्थ है प्रेम और “सोफिया” का अर्थ है बुद्धिमत्ता। इस प्रकार फ़िलासफ़ी का अर्थ हुआ “बुद्धिमत्ता से प्रेम”। बुद्धिमत्ता का तात्पर्य सत्य और ज्ञान के अनवरत खोज से है। इसलिए दर्शन का तात्पर्य किसी भी विषय विशेष के संदर्भ में सत्या और ज्ञान के निरंतर खोज और इस संबंध में प्राप्त तथ्यों को वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुतिकरण से है। समाज कार्य व्यक्तियों (व्यक्ति, समूह और समुदाय) के बीच समानता चाहता है।
समाजकार्य का दर्शन हर्बट विस्नो ने दिया है, जिसमें से व्यक्ति के प्रकृति, समूह तथा सामाजिक परिवर्तन के सबंध में दिया गया दर्शन बहुत ही रूचिकर तथा व्यावहारिक है।
हालांकि व्यक्ति के जीवन संबंधी अनेक मतभेदों के कारण समाजकार्य दर्शन के संबंध में भी मतभेद हैं क्योंकि विभिन्न देशों में जीवन की दशाएँ भी भिन्न-भिन्न हैं चाहे वह सामाजिक, आर्थिक हों या भौतिक और स्वास्थ्य संबंधी दशाएँ। इन्हीं सब कारणों से समाज कार्य दर्शन पर कोई सर्वसम्मति नहीं बन सकी है। जैसे समाज कार्य की कोई एक परिभाषा नहीं दी जा सकती जो सभी देश, काल, और समाज में समान रूप से लागू हो सके उसी तरह समाज कार्य का दर्शन भी किसी देश व समाज में समान रूप से लागू नहीं हो सकता। इसका एक प्रमुख कारण संस्कृतियों के रूपों में परिवर्तन भी है क्योंकि दर्शन में संस्कृति की स्पष्ट छाप रहती है। इसीलिए किसी भी देश का समाज कार्य दर्शन उस देश की जीवन संबंधी वास्तविकताओं और आवश्यकताओं पर आधारित दर्शन होगा। हर्बर्ट बिस्नो ने समाज कार्य द्वारा अपना एक दर्शन न प्रतिपादित करने के 3 प्रमुख कारण बताएँ हैं-
1- समाज कार्य व्यवसाय का नवीन होना।
2- सेवार्थी, सेवार्थी समूह के समक्ष अपनी कार्य पद्धतियों व प्रविधियों का विवरण प्रस्तुत करने में समाज कार्यकर्ता द्वारा कठिनाई महसूस किया जाना।
3- सामाजिक कार्यकर्ताओं और समाज कार्य के प्रयोजितों (प्रायोजकों) में समाज कार्य की दार्शनिक दिशा के संबंध में मतभेद का होना।
व्यक्ति के प्रकृति के संबंध में समाजकार्य का दर्शन :
1. प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में महान तथा संभावनाओं से भरा हुआ है, अतः उसकी सहायता करनी चाहिए।
2. मानवीय पीड़ा अवांछनीय है, अतः इसे दूर करना ही चाहिए ।
3. मानव जन्मजात रूप से पशु के समान अनैतिक तथा असामाजिक होता है तथा उसमें सीखने की प्रक्रिया महत्वपूर्ण है।
4. व्यक्ति के प्रारंभिक विकास में पारिवारिक संबधों का आधारभूत महत्व होता है।
5. मानव स्वभाव से ही विवेकपूर्ण कार्य नहीं करता।
6. प्रत्येक व्यक्ति का गुण तथा क्षमता अलग-अलग होती है, अतः मतभेद बिल्कुल स्वभाविक है, इसे स्वीकार करना चाहिए।
समूह के सबंध में समाजकार्य का दर्शन :
1. समाजकार्य "हस्तक्षेप न करने" तथा "योग्यतम् की उत्तरजीविता " सिद्धांत को नहीं मानता।
2.समाजकार्य यह भी स्वीकार नहीं करता कि धनी व शक्तिशाली व्यक्ति योग्य तथा निर्धन व निर्बल व्यक्ति अयोग्य होता है।
3. समुदाय पर स्वयं तथा अपने सदस्यों के कल्याण व विकास करने का मौलिक उत्तरदायित्व होता है।
4. जनसाधारण के रोजगार, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा तथा स्वतंत्रता की रक्षा आदि का उत्तरदायित्व राज्य का होता है।
सामाजिक परिवर्तन के संबंध में समाजकार्य का दर्शन :
1. किसी भी समाज में क्रमिक विकास द्वारा ही सुधार लाना संभव है।
2. सामाजिक नियोजन लोकतांत्रिक आधार पर होना चाहिए।
3. सामाजिक कार्यकर्ता को अपने संस्कृति पर इस प्रकार ध्यान देना चाहिए जैसे गंभीर राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक कुसमायोजन व्याप्त है।
समाज कार्य व्यवसाय के अंतर्गत कार्य करने वाला सामाजिक कार्यकर्ता अपने कार्य अनुभव से कुछ आदर्श और मूल्यों को विकसित करता है। समाज कार्य के अर्थ में जब इन आदर्शों व मूल्यों को एक तर्क संगत प्रणाली के तहत स्थापित किया जाता है तो वह समाज कार्य दर्शन बन जाता है।
संदर्भ
1. कक्षा व्याख्यान। : डॉ. अनुपमा राय
2. समाज कार्य। : तेजस पांडेय ओजस पांडेय
भारत बुक सेंटर, अशोक मार्ग लखनऊ
3. समाज कार्य का सौंदर्य। : गूगल सर्च
4.समाज कार्य का मूल्य : गूगल सर्च
यह लेख पूर्णतः मौलिक नही है। जानकारियों के इकट्ठा करके एक स्थान पर रखा गया है ताकि पाठकों को सुविधा हो।
👌👌👌👌
ReplyDeleteThankyou.
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