Sanskrit Rangmanch ke Abhinay Siddhant
संस्कृत रंगमंच के अभिनय सिद्धान्त
अभिनय अर्थात आगे की ऒर ले जाने वाला तत्व, सबको आगे की ओर ले जाने में नेतृत्व प्रदान करने वाला।
अभिनय उस शक्ति का नाम है जो हाव - भाव, मुद्राएँ, वाणी, विचार आदि को नेतृत्व प्रदान करे। और अपने मूल स्थान से आगे की और प्रेरित करे।
यतोहस्तस्ततो दृष्टि यातो दृष्टिस्ततो मनः।
यतोमनस्ततो भावः यातो भावस्ततो रसः।।
जहां हाथ जाए वहीँ दृष्टि को जाना चाहिए, जहाँ मन जाये वहां मन को जाना चाहिए, जहाँ मन जाये वहां भाव को जाना चाहिए तथा जहाँ भाव जाये वहां रास को जाना चाहिए।
भारत मुनि और नाट्यशास्त्र के अनुसार अभिनय के चार भेद हैं।
1. आंगिक। 2. वाचिक
3. आहारिक। 4. सात्विक
ऐसा कहा जाता है कि आत्मा कभी नही मरता केवल शरीर का त्याग करता है और दूसरे शारीर में प्रवेश करता है। जिस प्रकार जिव या आत्मा एक शारीर को त्याग कर दूसरे शारीर में प्रवेश करता है और उसके अनुरूप कार्य करने लगता है। उसी प्रकार अभिनेता को मंच पर जाने के पहले नाटक के चरित्र का स्मरण करना चाहिए और उसी मनोदशा में उस पात्र जैसी वाणी और आंगिक चेष्टाएँ बनानी चाहिए।
देशेवेशानुरूपेण पात्रं योज्यमं स्वभूमिषु।
अपनी भूमिका देश तथा वेश के अनुसार करनी चाहिए। अर्थात अभिनेता को ऐसा होना चाहिए कि वह परिस्थिति के अनुसार अपने आपको बदले तथा जैसा चरित्र हो उसी के अनुसार अपनी भूमिका, अपनी मुद्राएँ, अपने हाव - भाव करनी चाहिए।
आंगिक अभिनय
आंगिक अभिनय वह है जो शरीर के अंगों के द्वारा किया जाये। जैसे सिर, हस्त, उर, कटि, पाद इत्यादि।
उदहारण स्वरूप जब भी मंच पर अभिनय कर रहे होते हैं तो हमारा पूरा शरीर कार्य करता है। सिर हिलाना, हाथों के इशारे से कुछ कहना, कमर के उपयोग कर बैठना, कमर को खास तरह से हिलाना, पैर के इस्तेमाल से विभिन्न क्रियाये करना आदि सब आंगिक अभिनय के अंतर्गत आता है।
नाट्यशास्त्र के अनुसार आंगिक अभिनय के अंतर्गत सर्वप्रथम सिर - कर्म की बात की गयी है। सिर चलने के तेरह नियम बताये गए हैं।
1. अकम्पित। 2. केअपित
3. धुत 4. विधुत
5. परिवाहित। 6. आधूत
7. अवधूत। 8. अंचित
9. निहंचित। 10. परावृत्त
11. उत्क्षिप्त 12. अधोगत
13. लोलित
सिर कर्म के बाद हाथों की क्रिया तथा चालन बतायी गई है। हाथों की क्रिया में 24 असंयुक्त मुद्राएँ तथा 13 संयुक्त मुद्राएँ बतायी गयी है।
असंयुक्त हस्त की मुद्राएँ --
1. पताक। 2. त्रिपताक। 3. कर्तरिमुख।
4. अर्धचंद् 5. अराल। 6. शुकतुण्ड।
7. मुष्टि 8. शिखर 9. कपित्थ।
10. खटकामुख 11. सूच्य। 12. पद्मकोश
13. सर्पशिष। 14. मृगशीर्ष। 15. कांगूल।
16. अल्पद्म 17. चतुर 18. भ्रमर।
19. हंसास्य। 20. हंसपक्ष। 21. सन्देश।
22. मुकुल। 23. उर्णनाभ। 24. तंरचूर्ण
संयुक्त हस्त की मुद्राएँ ----
1. अंजलि। 2. कपोत। 3.कर्कट
4. स्वस्तिक। 5. खतकावर्धमान। 6. उत्संग
7. निषेध। 8. दोल। 9. पुष्पपुट
10. मर्कट। 11. गजदन्त। 12. अवहित्थ।
13. वर्धमान
इसी प्रकार शारीर के अन्य अंगों के द्वरा किया जाने वाला अभिनय भी शरीरज अभिनय के अंतर्गत आता है ।
मुखज अभिनय के अंतर्गत उपांगों से किया जाने वाला अभिनय आता है। उपांगों जैसे आँख, भौंह, नाक, आधार, गाल ठोढ़ी आदि से किया जाने वला अभिनय मुखज अभिनय के अंदर आता है। मुखज अभिनय चरित्र के भाव को दर्शाने में सहायक होता है।
आँखों से संचालन की 36 दृष्टियां होती है।
भौं के इस्तेमाल के 7 विधियां हैं।। नासिक 6 तरह से इस्तेमाल में आता है।
शरीर तथा मुख से बचे हुए भागों से अभिनय करने पर वह चेष्टाकृत अभिनय लाहलता है। अन्य अंग जैसे अंगुली, भुजाएं, पेट , जंघा, पलक, ग्रीवा तथा पुतलियां आदि से किया जाने वाला अभिनय चेष्टाकृत अभिनय कहलाता है।
वाचिक अभिनय।
वाचिक अभिनय के अंतर्गत वाचन अर्थात बोलनर से सम्बंधित चीज़े आती है। जैसे भाषा, उच्चारण , ध्वनि, ध्वनि के प्रकार आदि। नाटको के संवाद सरल होने चाहिए, कठिन तथा गूढ़ अर्थ वाले शब्दों का उपयोग नहीं होना चाहिए।
मनुष्य के शरीर के तीन स्थान से ध्वनि निकलती है। पहला छाती, दूसरा कंठ तथा तीसरा सिर। जो ध्वनि छाती से निकलती है उसे मंद, जो ध्वनि कंठ से निकलती है उसे मध्य तथा जो ध्वनि सिर से निकलती है उसे उच्च ध्वनि कहते हैं।
नाटक के लिए यह ज़रूरी है कि अभिनेता को भाषा का ज्ञान हो, अर्थात जिस भाषा में अभिनय करने जा रहा हो उस भाषा की जानकारी उसे होनी चाहिए। तभी वह समझ पायेगा की वह काया कह रहा है ओर के किस तरह कहना चाहिए। किस शब्द के साथ कौन सा भाव आएगा आदि।
अभिनेता को ध्यान रखना चाहिए की वह जो शब्द बोल रहा है उसका सही उच्चारण वह कर रहा है या नहीं। नाटक के लिए उच्चारण बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि शब्दों के उच्चारण से उसका मतलब बदल जाता है। अतः शब्दों का सही - सही उच्चारण बहुत ज़रूरी है।
अभिनेता लिखे गए वाक्य का अर्थ समझने वाला होना चाहिए। तभी वह नाटक के अर्थ को दर्शकों तक सही सही पंहुचा सकता है। उसे इस बात की जानकारी भी होनी चाहिए की संवाद के अंदर किस शब्द पर कितना ज़ोर पड़ेगा, किस शब्द को हलके में बोलना है, किस शब्द को उछाल देना है आदि। अभिनेता को संवाद बोलते समय संवाद के उत्तर - चढाव का भी ध्यान रखना चाहिए। ताकि सामने बैठे दर्शक संवाद का भरपूर आनंद ले सके।
अतः अभिनेता को भाषा के जानकार के साथ - साथ मज़बूत ध्वनि वाला भी होना चाहिए।
आहार्य अभिनय।
आहार्य अर्थात सजावट। अभिनेता का रूप - सज्जा हो, वेश - भूषा हो अथवा मंच सज्जा हो सब आहार्य अभिनय के अंतर्गत आता है। नाटक करने के लिए आहार्य अभिनय बहुत ही महत्वपूर्ण है, क्योंकि जबतक साज - सज्जा नही होगी दृश्य तथा पात्र का भरपूर मनोरंजन नही मिल पायेगा। पात्र का अर्थ तथा वातावरण का अर्थ स्पष्ट करने के लिए साज - सज्जा अहम् हो जाता है। नाटक का आधा अर्थ साज - सज्जा से निकल जाता है।
अभिनय के लिए रूप सज्जा तथा वेश भूषा का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। रूप सज्जा तथा विष भूषा से नाटक के पात्र के बारे में आधी जानकारी मिल जाती है। उदाहरण के किये अगर कोई व्यक्ति जल्लाद का पात्र कर रहा है तो उसकी बड़ी बड़ी मूछें, बदन पर काला कपडा तथा हाथ में हथियार दे देने से लोग देख कर ही समझ जाते हैं कि कोई क्रूर पात्र है। वहीँ पर अगर अभिनेता अच्छे वस्त्र तथा तरह तरह के अच्छे आभूषण के साथ साथ मुकुट पहना हो तो वह राजा के पात्र को दर्शाता है।
अगर नाटक में किसी सजीव को दर्शन है तो उस सजीव की तरह वेश - भूषा बनाना चाहिए। जैसे अगर किसी चौपाये जानवर को दर्शना हो तो अभिनेता उस जानवर जा मुखौटा लगाना चाहिए तथा कपडे का उस जनवर का खाल बना कर पहनना चाहिए।
आहार्य अभिनय के अंतर्गत मंच सज्जा का भी महत्वपूर्ण स्थान है। मंच सज्जा नाटक का समय , काल, परिस्थितियां आदि को दर्शाता है। अगर मंच पर घने पेड़ो का उपयोग किया गया हो तो वह जंगल को दर्शाता है, अगर मंच पर घर दिखाया जाये तो वह गाँव या नगर को दर्शाता है। इसी प्रकार मंच सज्जा से वातावरण को दर्शाना चाहिए।
सात्विक अभिनय
सात्विक अभिनय सबसे महत्वपूर्ण तथा सबसे कठिन अभिनय है। दूसरे शब्दों में इसे आतंरिक अभिनय भी कह सकते हैं। अर्थात जो अंतर्मन से किया जाये। आंगिक, वाचिक तथा आहरिक अभिनय का सम्बन्ध मनुष्य के बाहरी प्रकृति से से है, किन्तु सात्विक अभिनय का सम्बन्ध मनुष्य के आतंरिक मनोभावों से है।
सात्विक अभिनय के अनुसार अभिनेता को ऐसा होना चाहिए कि वह नाटक के पात्र के मनः स्थिति को अच्छी तरह से समझ ले। पात्र किस वातावरण का है, उसकी क्या परिस्थितियां हैं, पात्र क्रूर है अथवा मृदुल है आदि के बारे में अच्छी तरह समझ लेने से अभिनेता के अंदर वह पात्र पूरी तरह से जिवंत हो जाता है तथा अभिनेता पात्र के बारीकियों को अच्छे से निभा पता है।
नाट्यशास्त्र के अनुसार स्त्री पत्रों के सात प्रकार हैं तथा पुरुष पात्र के आठ प्रकार हैं।
स्त्री पत्रों के प्रकार -------
1. शोभा। 2. कान्ति। 3. दीप्ती।
4. माधुर्य। 5. धैर्य। 6. प्रगल्भ।
7. औदार्य
पुरुष पत्रों के प्रकार -----------
1. शोभा। 2. विलास। 3. माधुर्य।
4. स्थैर्य। 5. गाम्भीर्य। 6. ललित।
7. औदार्य। 8. तेज।
जब किसी नाटक का पूर्वाभ्यास कर रहे होते हैं तो निर्देशक कहते हैं कि कैरेक्टर में थोड़ा ग्रेस लाओ, एक्सप्रेशन अच्छा करो, गंभीरता लाओ आदि। यह तभी आता है जब पात्र के मनोदशा का विश्लेषण अच्छे से किया जाये। जब पात्र के भावनात्मक पक्ष को अच्छी तरह से जान समझ लेते हैं तो भाव भी सटीक और सही निकलता है।
उदाहरण स्वरूप अगर पात्र के बारे में कहा गया है कि वह किसी कर्फ्यू लगे स्थान से आया है जहाँ मार काट चल रही है, उस पात्र का पूरा परिवार दंगे की आग में झुलस चूका है। तब उस पात्र को निभाने के लिए अभिनेता को अपने अंतर मन में उस पूरी घटना से गुजरना चाहिए, जिससे अभिनेता उस पात्र के भावनाओं को समझ लेगा और मंच पर उस पात्र को अपने अंदर जिवंत कर पायेगा।
संस्कृत रंगमंच के अभिनय सिद्धान्त इन्ही चार भेदों में है। इन चार भेदों को जान लेने के बाद संस्कृत रंगमंच के अभिनय सिद्धान्त को अच्छे से समझ लेते हैं तथा इन्ही सिद्धान्तों के अनुसार संस्कृत रंगमंच की प्रस्तुति होती थी। संस्कृत रंगमंच करते समय इन सिद्धान्तों का पालन करना अतिआवश्यक है।
प्रमुख नाटककार
1. भाष। 2. भवभूति
3. शूद्रक। 4. कालिदास
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