शोध की अर्थ, प्रकृति एवं स्वरूप
शोध का अर्थ, प्रकृति एवं स्वरूप
भूमिका
किसी भी समस्या का समाधान ढूंढने के लिए किया गया कार्य शोध है। अर्थात समाज में बहुत सी समस्याएं हैं, कुछ बड़ी तो कुछ छोटी किंतु समस्याएं बहुत से हैं । किसी एक समस्या को चुनकर उसका समाधान ढूंढने के लिए जो कार्य किए जाते हैं उसे शोध कहते हैं। जिस प्रकार एक वैज्ञानिक रासायनिक प्रयोगशाला में किसी रासायनिक समस्या को हल करने के लिए दो या दो से अधिक रसायन को मिलाकर नया रासायनिक पदार्थ बनाने के लिए अनुसंधान करते हैं उसी प्रकार साहित्य में साहित्य से जुड़ी बहुत सारी जिज्ञासाएं मनुष्य के मस्तिष्क में उत्पन्न होती है, जिससे कई सवाल उत्पन्न होते हैं जो समस्या उत्पन्न करती है उस समस्या को हल करने के लिए इतिहास तथा वर्तमान को खंगालते हैं और कई तरह के साहित्यिक प्रयोग करते हैं और एक नई परिभाषा तथा साहित्य की रचना करते हैं। इन्हीं प्रयोगों को शोध कहते हैं।
पूरी दुनिया ज्ञान का भंडार है, किंतु वह ज्ञान बिखरा पड़ा है, उस ज्ञान से बहुत ही छोटा वर्ग परिचित होता है, पूरी दुनिया के जानकारी में नहीं होता है। ज्ञान के व्यवस्थापन के लिए शोध कार्य को बढ़ावा दिया गया है। हर देश की सरकारें अपने यहां के ज्ञान को दुनिया तक पहुंचाने के लिए शोध कार्य करवा रही है। अलग अलग तरीके से, अलग - अलग जरिए से भारी मात्रा में शोध कार्य हो रहे हैं। जिसमें सबसे बृहत स्तर पर शोध कार्य विश्वविद्यालयों के माध्यम से हो रहे हैं, क्योंकि विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले छात्र नई ऊर्जा तथा बुद्धि से भरे होते हैं। जिस कारण किसी भी ज्ञान का व्यवस्थापन नए तरीके तथा नई ऊर्जा के साथ होता है । विश्वविद्यालय में अनेक विषय के छात्र होते हैं जिस कारण शोध कार्य अनेक क्षेत्रों में अधिकाधिक मात्रा में हो पाता है । जिससे छुपी हुई ज्ञान के तथ्य निकलकर दुनिया के सामने आ पाता है। विश्वविद्यालय स्तर के शोध में एक खास बात यह है कि विश्वविद्यालय प्रशासन शोध की दिशा निर्देशित करती है तथा शोध के मौलिकता की जांच करती है ताकि साहित्यिक चोरी ना हो सके और जो शोध बनकर तैयार हुआ है वह मूल और नई हो ।
इस प्रकार शोध नियमों और दायरों में बांध दिया गया है और ज्ञान की भी सीमा रेखा तय हो गई है। इसके पीछे यह कारण हो सकता है कि शोधार्थी द्वारा कुछ ऐसा सोध अथवा ज्ञान लोगों के सामने न परोस दिया जाए जिससे धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा राष्ट्र भावना को ठेस पहुंचे।
उदाहरण के लिए मान लिया जाए एक शोधार्थी अपने शोध का विषय चुनता है "भारत की धार्मिक कुर्तियां" । वह शोधार्थी इस विषय का चयन यह सोंच कर करेगा कि इससे धार्मिक कुरीतियां समाज के सामने आएगी जिससे बदलाव होगा। इस विषय का दूसरा पहलू यह भी होगा कि भारत के धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचेगा, क्योंकि भारत में कई धर्म है और उसके प्रति आस्थावानों की संख्या भी अधिक है। अतः ऐसी समस्या का समाधान के लिए भारतीय प्रशासन ने विश्वविद्यालय प्रशासन से शोध को जोड़ दिया। विश्वविद्यालय प्रशासन मार्गदर्शक तय करती है जिसके मार्गदर्शन में शोधार्थी शोध करता है । प्रशासन, मार्गदर्शक तथा शोधार्थी के बीच में सहसंबंध स्थापित होता है कि किन चीजों को करना है तथा किन चीजों को नहीं करना है। मार्गदर्शक विश्वविद्यालय के अध्यादेश के अनुसार शोधार्थी को दिशा दिखाता है कि वह किस क्षेत्र में शोध कर सकता है और किस क्षेत्र में नहीं। शोधार्थी अपने शोध में किन तत्व को शामिल कर सकता है और किन तत्वों को नहीं। शोध में समय तथा स्थान को भी ध्यान में रखना होता है, क्योंकि एक ही शोध विषय एक स्थान के लिए लाभदायक है तो दूसरे स्थान के लिए हानिकारक। उदाहरण स्वरूप बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन की रचना को देख सकते हैं। जिसके कारण बांग्लादेशी मौलवी के द्वारा उन्हें सजा ए मौत की सजा सुनाई गई और वह बांग्लादेश से निर्वासित हो गई, वहीं पर भारत ने उन्हें नागरिकता दे दी और स्वीडन ने भी। उनके उपन्यास में बाबरी मस्जिद टूटने से बौखलाए बांग्लादेशी मुस्लिम अपने हिंदू भाइयों का कत्लेआम किया तथा कई हिंदू धर्मस्थल तोड़ दीये। उनके इस उपन्यास में बांग्लादेशी मुसलमानों की बर्बरता को दर्शाया गया है। जिससे बांग्लादेश की छवि को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर छति पहुंची और राष्ट्र भावना को ठेस पहुंची। वहीं दूसरी और भारतीय तथा अन्य देशों के लिए यह एक सूचना बनकर सामने आई।
ऐसी स्थिति ना हो इसीलिए शोध को नियमों तथा कानूनों में बांध दिया गया, किंतु इसका गलत फायदा राजनीतिक दल उठाते हैं और सत्तारूढ राजनीतिक दल अपनी विचारधारा के अनुसार शोध की दिशा तय करते हैं। जिस कारण ना तो मार्गदर्शक स्वतंत्र रूप से शोध कार्य करवा पाता है और ना ही शोधार्थी स्वच्छंद होकर शोध कार्य कर पाता है।
शोध एक औपचारिक प्रक्रिया है जिस का विषय से लेकर शोध की सामग्री भी नपी तुली होती है। शोध की दिशा भी निर्देशित होती है। इस कारण सृजित होने वाला ज्ञान भी बंधा होता है। शोध एक प्रक्रिया है जिसमें ज्ञान का वैश्वीकरण, सार्वभौमीकरण किया जाता है। शोध में प्रशासन तथा मार्गदर्शक शोधार्थी से अपेक्षा करता है कि वह यूनिवर्सल पैटर्न को फॉलो करें।
मैक्सवेबर के अनुसार:-
The formal view of research process makes bureaucratization and Bureaucracy is a iron cage.
मैक्सवेबर कहते है कि ब्यूरोक्रेसी यानी लालफीताशाही एक लोहे का पिंजरा है और यूनिवर्सिटी सिस्टम में रिसर्च एक ब्यूरोक्रेटिक प्रोसेस है, जिसमें क्षेत्र निर्धारित होता है, शोध की सीमा तय होती है, एक तरह से डिसाइड करता है कि स्टूडेंट का रिसर्च कैसा होगा।
शोध का अर्थ
मनुष्य स्वभावत: एक जिज्ञाशील प्राणी है। अपनी जिज्ञाशील प्रकृति के कारण वह समाज वह प्रकृति में घटित विभिन्न घटनाओं के सम्बन्ध में विविध प्रश्नों को खड़ा करता है। और स्वयं उन प्रश्नों के उत्तर ढूढने का प्रयत्न भी करता है। और इसी के साथ प्रारम्भ होती है। सामाजिक अनुसंधान के वैज्ञानिक प्रक्रिया, वस्तुत: अनुसन्धान का उद्देश्य वैज्ञानिक प्रक्रियाओं के प्रयोग द्वारा प्रश्नों के उत्तरों की खोज करना है। स्पष्ट है कि, किसी क्षेत्र विशेष में नवीन ज्ञान की खोज या पुराने ज्ञान का पुन: परीक्षण अथवा दूसरे तरीके से विश्लेषण कर नवीन तथ्यों का उद्घाटन करना शोध कहलाता है। यह एक निरन्तर प्रक्रिया है, जिसमें तार्किकता, योजनाबद्धता एवं क्रमबद्धता पायी जाती है। जब यह शोध सामाजिक क्षेत्र में होता है तो उसे सामाजिक शोध कहा जाता है। प्राकृतिक एवं जीव विज्ञानों की तरह सामाजिक शोध भी वैज्ञानिक होता है क्योंकि इसमें वैज्ञानिक विधियों की सहायता से निष्कर्षों पर पहुँचा जाता है। वैज्ञानिक विधियों से यहाँ आशय मात्र यह है कि किसी भी सामाजिक शोध को पूर्ण करने के लिए एक तर्कसंगत शोध प्रक्रिया से गुजरना होता है। शोध में वैज्ञानिकता का जहाँ तक प्रश्न है, इस पर भी विद्वानों के अलग-अलग मत हैं। रीड का मानना है कि, ‘‘शोध हमेशा वह नही होता जिसे आप ‘वैज्ञानिक’ कह सकें। शोध कभी-कभी उपयोगी जानकारी एकत्र करने तक सीमित हो सकता है। बहुधा ऐसी जानकारी किसी कार्य विशेष का नियोजन करने और महत्वपूर्ण निर्णयों को लेने हेतु बहुत महत्वपूर्ण होती है। इस प्रकार के शोध कार्य में एकत्र की गयी सामग्री तदन्तर सिद्धान्त निर्माण की ओर ले जा सकती है।’’
शोध एक अनोखी प्रक्रिया है जो ज्ञान के प्रकाश और प्रसार में सहायक होता है।
· इसके द्वारा या तो किसी नये तथ्य, सिद्धान्त, विधि, या वस्तु की खोज की जाती है
या फिर प्राचीन तथ्य, सिद्धान्त, विधि, या वस्तु में परिवर्तन किया जाता है।
· यह सुव्यवस्थित, बौद्धिक, तर्कपूर्ण तथा वस्तुनिष्ठ प्रक्रिया होती है।
· इसमें विभिन्न श्रोतों (प्राथमिक तथा द्वितीयक) से प्राप्त आंकड़े का विश्लेषण
किया जाता है इसलिए चिंतन का महत्वपूर्ण स्थान होता है और पूर्वाग्रहों और
रूढ़ियों की कतई गुंजाइश नहीं होती है।
· शोध के लिए वैज्ञानिक अभिकल्पों का प्रयोग किया जाता है।
· आंकड़े एकत्रित करने के लिए विश्वसनीय उपकरणों का प्रयोग किया जाता है।
· अनुसंधान द्वारा प्राप्त ज्ञान को सत्यापित किया जा सकता है।
· पूरी प्रक्रिया की सफलता के लिए व्यवस्थित तरीके से क्रमबद्ध चरणो से गुजरना
होता है। इन क्रमबद्ध चरणो की व्यवस्था ही शोध का स्वरूप निर्धारक होता है।
अलग-अलग विद्वानों ने इसे कुछ इस तरह परिभाषित किया है-
. रस्क के अनुसार शोध के एक दृष्टिकोण है, जांच-परख का तरीका और मानसिकता
है।
. रैडमैन और मोरी ने अपनी किताब “दि रोमांस ऑफ रिसर्च” में शोध का अर्थ स्पष्ट
करते हुए लिखा है, कि नवीन ज्ञान की प्राप्ति के व्यवस्थित प्रयत्न को हम शोध कहते
हैं।
. एडवांस्ड लर्नर डिक्शनरी ऑफ करेंट इंग्लिश के अनुसार- किसी भी ज्ञान की शाखा
में नवीन तथ्यों की खोज के लिए सावधानीपूर्वक किए गए अन्वेषण या जांच-
पड़ताल को शोध की संज्ञा दी जाती है।
. स्पार और स्वेन्सन ने शोध को परिभाषित करते हुए अपनी पुस्तक में लिखा है कि
कोई भी विद्वतापूर्ण शोध ही सत्य के लिए, तथ्यों के लिए, निश्चितताओं के लिए
अन्चेषण है।
. लुण्डबर्ग ने शोध को परिभाषित करते हुए लिखा है, कि अवलोकित सामग्री का
संभावित वर्गीकरण, साधारणीकरण एवं सत्यापन करते हुए पर्याप्त कर्म विषयक
और व्यवस्थित पद्धति है।
. रूमेल के अनुसार ज्ञान को खोजना, विकसित करना और सत्यापित करना शोध है
सामाजिक शोध को और भी स्पष्ट करने के लिए हम कुछ विद्वानों की परिभाषाओं का उल्लेख कर सकते हैं। पी. वी. यंग के अनुसार, ‘‘हम सामाजिक अनुसंधान को एक वैज्ञानिक कार्य के रूप में परिभाषित कर सकते हैं, जिसका उद्देश्य तार्किक एवं क्रमबद्ध पद्धतियों के द्वारा नवीन तथ्यों की खोज या पुराने तथ्यों को, और उनके अनुक्रमों, अन्तर्सम्बन्धों, कारणों एवं उनको संचालित करने वाले प्राकृतिक नियमों को खोजना है।’’
सी.ए. मोज़र ने सामाजिक शोध को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि, ‘‘सामाजिक घटनाओं एवं समस्याओं के सम्बन्ध में नये ज्ञान की प्राप्ति हेतु व्यवस्थित अन्वेषण को हम सामाजिक शोध कहते हैं।’’ वास्तव में देखा जाये तो, ‘सामाजिक यथार्थता की अन्तर्सम्बन्धित प्रक्रियाओं की व्यवस्थित जाँच तथा विश्लेषण सामाजिक शोध है।’ स्पष्ट है कि विद्वानों ने सामाजिक शोध को अपनी-अपनी तरह से परिभाषित किया है। उन सभी की परिभाषाओं के आधार पर निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता हैं कि सामाजिक शोध सामाजिक जीवन के विविध पक्षों का तार्किक एवं व्यवस्थित अध्ययन है, जिसमें कार्य-कारण सम्बन्धों के आधार पर व्याख्या की जाती है। सामाजिक शोध की प्रासंगिकता तभी है जब किसी निश्चित सैद्धान्तिक एवं अवधारणात्मक संदर्भ संरचना के अन्तर्गत उसे सम्पादित किया जाये। सामाजिक अनुसन्धानकर्त्ता किसी अध्ययन समस्या से सम्बन्धित दो आधारभूत शोध प्रश्नों को उठाता है- क्या हो रहा है? और क्यों हो रहा है? अध्ययन समस्या का ‘क्या हो रहा है?’ प्रश्न का यदि कोर्इ उत्तर खोजता है और उसे देता है तो उसका शोध कार्य विवराणात्मक शोध की श्रेणी में आता है। ‘क्यों हो रहा है?’ ‘का उत्तर देने के लिए उसे कारणात्मक सम्बन्धों की खोज करनी पड़ती है। इस प्रकार का शोध कार्य व्याख्यात्मक शोध कार्य होता है जो कि सिद्धान्त में परिणत होता है। यह सामाजिक घटनाओं के कारणों पर प्रकाश डालता है तथा विविध परिवत्र्यों के मध्य सम्बन्ध स्पष्ट करता है।
व्यापक अर्थ में शोध किसी भी क्षेत्र में 'ज्ञान की खोज करना' या 'विधिवत गवेषणा' करना होता है। वैज्ञानिक अनुसंधान में वैज्ञानिक विधि का सहारा लेते हुए जिज्ञासा का समाधान करने की कोशिश की जाती है। नवीन वस्तुओं की खोज और पुराने वस्तुओं एवं सिद्धान्तों का पुन: परीक्षण करना, जिससे कि नए तथ्य प्राप्त हो सकें, उसे शोध कहते हैं। गुणात्मक तथा मात्रात्मक शोध इसके प्रमुख प्रकारों में से एक हैं।
वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में उच्च शिक्षा की सहज उपलब्धता और उच्च शिक्षा संस्थानों को शोध से अनिवार्य रूप से जोड़ने की नीति ने शोध की महत्ता को बढ़ा दिया है। आज शैक्षिक शोध का क्षेत्र विस्तृत और सघन हुआ है।
अध्ययन से दीक्षित होकर शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करते हुए शिक्षा में या अपने शैक्षिक विषय में कुछ जोड़ने की क्रिया अनुसंधान कहलाती है। पी-एच.डी./ डी.फिल या डी.लिट्/डी.एस-सी। जैसी शोध उपाधियाँ इसी उपलब्धि के लिए दी जाती है। इनमें अध्येता से अपने शोध से ज्ञान के कुछ नए तथ्य या आयाम उद्घाटित करने की अपेक्षा की जाती है। शोध अंग्रेजी शब्द रिसर्च, का पर्याय है किंतु इसका अर्थ 'पुनः खोज' नहीं है अपितु 'गहन खोज' है। इसके द्वारा हम कुछ नया आविष्कृत कर उस ज्ञान परंपरा में कुछ नए अध्याय जोड़ते हैं।
हमारा यह संसार प्राकृतिक एवं चमत्कारिक अवदानों से परिपूर्ण है। अनन्त काल से यहाँ तथ्यों का रहस्योद्घाटन और व्यवस्थित अभिज्ञान का अनुशीलन होता रहा है। कई तथ्यों का उद्घाटन तो दीर्घ अन्तराल के निरन्तर शोध से ही सम्भव हो सका है। जाहिर है कि इन तथ्यों की खोज और उसकी पुष्टि के लिए शोध की अनिवार्यता बनी रही है।
अंग्रेजी में जिसे लोग डिस्कवरी ऑफ फैक्ट्स कहते हैं, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी स्थूल अर्थों में उसी नवीन और विस्मृत तत्त्वों के अनुसन्धान को शोध कहते हैं। पर सूक्ष्म अर्थ में वे इसे ज्ञात साहित्य के पूनर्मूल्यांकन और नई व्याख्याओं का सूचक मानते हैं। दरअसल सार्थक जीवन की समझ एवं समय-समय पर उस समझ का पूनर्मूल्यांकन, नवीनीकरण का नाम ज्ञान है, और ज्ञान की सीमा का विस्तार शोध कहलाता
शोध के लिए प्रयुक्त अन्य हिन्दी पर्याय हैं-- अनुसन्धान, गवेषणा, खोज, अन्वेषण, मीमांसा, अनुशीलन, परिशीलन, आलोचना, रिसर्च आदि।
प्रकृति एवं स्वरूप
शोध का आधार विज्ञान और वैज्ञानिक पद्धति है, जिसमें ज्ञान भी वस्तुपरक होता है। तथ्यों के अवलोकन से कार्य-कारण सम्बन्ध ज्ञात करना शोध की प्रमुख प्रक्रिया है। इस अर्थ में हम स्पष्ट देख पा रहे हैं कि शोध का सम्बन्ध आस्था से कम, परीक्षण से अधिक है। शोध-वृत्ति का उद्गम-स्रोत प्रश्नों से घिरे शोधकर्मी की संशयात्मा होती है। प्रचारित मान्यता की वस्तुपरकता पर शोधकर्मी का संशय उसे प्रश्नाकुल कर देता है; फलस्वरूप वह उसकी तथ्यपूर्ण जाँच के लिए उद्यमशील होता है। स्थापित सत्य है कि हर संशय का मूल दर्शन है; और सामाजिक परिदृश्य का हर नागरिक दर्शन-शास्त्र पढ़े बिना भी थोड़ा-थोड़ा दार्शनिक होता है। संशय-वृत्ति उसके जैविक विकास-क्रम का हिस्सा होता है। यह वृत्ति उसका जन्मजात संस्कार भले न हो, पर जाग्रत मस्तिष्क की प्रश्नाकुलता का अभिन्न अंग बना रहना उसका स्वभाव होता है। प्रत्यक्ष प्रसंग के बारे में अधिक से अधिक ज्ञान हासिल करने की लालसा और प्रचारित सत्य की वास्तविकता सुनिश्चित करने की जिज्ञासा अपने-अपने सामथ्र्य के अनुसार हर किसी में होती है। यही लालसा जीवन के वार्द्धक्य में उसकी चिन्तन-प्रक्रिया का सहचर बन जाती है, जिसे जीवन-यापन के दौरान मनुष्य अपनी प्रतिभा और उद्यम से निखारता रहता है।
वैज्ञानिक शोध में तथ्य-संग्रह और जिज्ञासा के दोहन की व्यवस्थित पद्धति है। शोध की यह पद्धति वैज्ञानिक सूचनाओं एवं सिद्धान्तों की दृष्टि से वैश्विक सम्पदा के वैशिष्ट्य की व्याख्या का अवसर देती है। शैक्षिक सन्दर्भों एवं ज्ञान की विभिन्न शाखाओं के अनुसार वैज्ञानिक शोध का कोटि-विभाजन किया जा सकता है।
मानविकी विषयों के शोध में लागू होनेवाली विभिन्न विधियों में प्रमुख हैं--हर्मेन्युटिक्स (hermeneutics), संकेत विज्ञान (semiotics), और सापेक्षवादी ज्ञान मीमांसा (relativist epistemology) पद्धति। बाइबिल, ज्ञान साहित्य, दार्शनिक एवं साहित्यिक ग्रन्थों की व्याख्या की विशेष शाखा हर्मेन्युटिक्स है। प्रारम्भ में हर्मेन्युटिक्स का प्रयोग शास्त्रों की व्याख्या या भाष्य मात्र के लिए होता था, पर बाद के दिनों इस पद्धति का उपयोग मानविकी विषयों की समझ बनाने में होने लगा। आधुनिक हर्मेन्युटिक्स में लिखित-मौखिक संवाद के साथ-साथ पूर्वाग्रह एवं पूर्वधारणाएँ भी शामिल हैं। हर्मेन्युटिक्स और भाष्य शब्द कभी-कभी पर्याय के रूप में उपयोग कर लिए जाते हैं, किन्तु हर्मेन्युटिक्स जहाँ लिखित-मौखिक सभी संवादों से सम्बद्ध एक व्यापक अनुशासन है, वहीं भाष्य प्रथमतः और मूलतः पाठ-आधारित व्याख्या है। ध्यातव्य है कि एकवचन रूप में हर्मेन्युटिक का अर्थ व्याख्या की विशेष विधि है।
सापेक्षवादी ज्ञान मीमांसा (relativist epistemology) पदबन्ध का उपयोग सर्वप्रथम स्कॉटलैण्ड के दार्शनिक फ्रेडरिक जेम्स फेरियर ने ज्ञान के विभिन्न पहलुओं से सबद्ध दर्शन की शाखाओं का वर्णन करने हेतु किया था। सारतः यह ज्ञान एवं समुचित आस्था का अध्ययन है। यह सवाल करता है कि ज्ञान क्या है और यह कैसे प्राप्त किया जा सकता है।
अत्याधुनिक विकास के कारण इधर ज्ञान की शाखाओं में बहुत विस्तार आया है। साहित्य-कला-संस्कृति से सम्बद्ध शोध की दिशाएँ विराट हो गई हैं। कलात्मक एवं सृजनात्मक रचनाओं से सम्बद्ध विषय पर केन्द्रित शोध की धाराएँ बहुआयामी हो गई हैं। इसकी शोध-प्रक्रिया ज्ञान की कई शाखाओं से जा मिली हैं। ज्ञानमूल की प्राप्ति एवं तथ्यान्वेषण हेतु चिन्तन की यह नई पद्धति शुद्ध वैज्ञानिक पद्धतियों का विकल्प भी प्रदान करती है।
शोध मुख्य दो प्रकार के होते हैं:-
1. हाइपोथेसिस टेस्टिंग रिसर्च
2. दूसरा हाइपोथेसिस जेनरेटिंग रिसर्च
थीसिस
कोई भी वह बात जिस पर हम विश्वास करते हैं और चाहते हैं कि सामने वाला भी करें। इसके लिए हम अलग अलग उदाहरण देकर उस बात को समझाने की कोशिश करते हैं हाइपोथेसिस कहलाता है। हाइपो अर्थात छोटा। थेसिस यानी कि जो हम सिद्ध करते हैं।
जब किसी शोधार्थी के मन में एक विचार आता है दो लाइन का, चार लाइन का या एक पैराग्राफ का तो उसे हाइपोथेसिस कहते हैं जब वह विचार सिद्ध हो जाता है तब वह थेसिस बन जाता है।
किसी शोधार्थी के लिए यह जरूरी है कि कोई एक विचार अथवा टॉपिक उसे गाइड करता रहे या उसे उसके वैचारिक बिंदु की दिशा दिखाता रहे। शोधार्थी जब उस विचार से सहमति या असहमति को ढूंढता है तो उसे निष्कर्ष प्राप्त होता है उस सहमति या असहमति को ध्यान में रखकर विचार को सिद्ध करने के लिए उससे संबंधित खोज करता है।
हाइपोथेसिस टेस्टिंग रिसर्च : यह तरीका बहुत ही कॉमन है । इसे प्रयोगात्मक शोध या एक्सपेरिमेंटल रिसर्च भी कहते हैं। जिस विचार पर विश्वास कर रहे हैं वह सही है या नहीं जानने के लिए प्रयोग करने पर शोध का प्रारूप निकलता है।
हाइपोथेसिस जेनरेटिंग रिसर्च : इस प्रकार के शोध में शोध के दौरान पता चलता है कि विचार ये है। इसमें हम हाइपोथेसिस को जबरदस्ती प्रूफ करने की कोशिश करते हैं। जो इस मेथड की कमी है। हाइपोथेसिस जेनरेटिंग के दो प्रकार हैं पहला व्याख्यात्मक यानी डिस्क्रिप्टिव रिसर्च इसे एथनोग्राफिक रिसर्च भी कहते हैं। दूसरा एक्सप्लोरेट्री रिसर्च यानी जहां पहले से कोई शोध नहीं हुआ हो।
व्याख्यात्मक शोध : इस प्रकार के शोध में अपने विचारों को सिद्ध करने के लिए उस विचार की अलग - अलग तरह से व्याख्या करते हैं तथा उस विचार को सिद्ध करते हैं।
एक्सप्लोरेट्री रिसर्च : इस प्रकार के शोध में उन समस्याओं को चुनते हैं जहां पहले से कोई शोध ना हुआ हो तथा उस क्षेत्र में उसके विचार को सिद्ध करने के लिए उस विचार को एक्सप्लोर करते हैं। उस विचार से संबंधित तथ्यों का पता लगाते हैं।
गणित और विज्ञान में ऐसे अनेक शोध किए जाते हैं जिनका परिणाम वस्तुओं की मात्रा, आकार, शक्ति, रूप परिवर्तन आदि से संबंधित सिद्धांतों का आविष्कार होता है। प्रथम दृष्टि में शोध के फलों का प्रत्यक्ष प्रयोजन लक्षित नहीं होता। परंतु इन्हीं सिद्धांतों के आधार पर प्रायोगिक शोध के द्वारा ना जाने कितने वैज्ञानिक कार्य किए जाते हैं, नई चीजों का आविष्कार किया जाता है। अतः सैद्धांतिक शोधों का प्रयोजन कहीं अधिक है।
साहित्य, सौंदर्यशास्त्र एवं मानविकी के विषयों के शोधों का प्रयोजन एक तरह का है। अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान आदि के कुछ शोधों का प्रायोगिक उपयोग हो सकता है जैसे अर्थशास्त्री सिद्धांतों का प्रयोग कर आर्थिक योजनाएं आयोजित की जा सकती है और मनोवैज्ञानिक शोध से रोगों की चिकित्सा शिक्षा विधाओं का निर्माण आदि संभव है।
साहित्य, कला, दर्शन, इतिहास आदि के शोधों से जिनका कोई प्रत्यक्ष लौकिक उपयोग दृष्टिगत नहीं होता उन सब सौंदर्यमूलक तत्वों एवं जीवन मूल्यों का ज्ञान होता है, जिनको किस जाति ने अपने अतीत की समस्त साधनों से संचित किया है, जिनको वर्चस्व के रूप में सुरक्षित रखा है। इस संपत्ति के मूल्य के ज्ञान से जाति की अस्मिता बनी रहती है, उसके आत्म गौरव की नींव सुदृढ़ रहती है। इस जातीय गौरव से आत्मविश्वास और आत्मबल का विकास होता है जो जाति के सर्वांगीण उन्नति में सहायक होते हैं। इस तरह इन सौंदर्यमूलक विषयों का शोध अत्याधिक सांस्कृतिक महत्व रखता है।
जितना महत्व विज्ञान यथा रसायन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, जीव विज्ञान मे शोध तथा उसके परिणाम महत्व रखते हैं उतना ही महत्व साहित्य, सौंदर्य, दर्शन, सांस्कृतिक में समाजिक विज्ञान के शोध महत्व रखते हैं। जिस तरह से विज्ञान में शोध भौतिक विकास को आगे बढ़ाता है उसी प्रकार समाज विज्ञान का शोध सामाजिक विकास को आगे बढ़ाता है तथा मनुष्य को की बुद्धि को विकसित करने में सहायता प्रदान करता है।
संदर्भ
1.कक्षा व्याख्यान : डॉ. प्रशांत खत्री।
2.अनुसंधान प्रविधि सिद्धान्त और प्रक्रिया : एस. एन. गणेशन। 3 .शोध प्रविधि : गूगल सर्चयह आलेख पूर्णतः मौलिक नही है। पाठकों की सुविधा के लिए सूचना को एक जगह संग्रहित किया गया है।
भूमिका
किसी भी समस्या का समाधान ढूंढने के लिए किया गया कार्य शोध है। अर्थात समाज में बहुत सी समस्याएं हैं, कुछ बड़ी तो कुछ छोटी किंतु समस्याएं बहुत से हैं । किसी एक समस्या को चुनकर उसका समाधान ढूंढने के लिए जो कार्य किए जाते हैं उसे शोध कहते हैं। जिस प्रकार एक वैज्ञानिक रासायनिक प्रयोगशाला में किसी रासायनिक समस्या को हल करने के लिए दो या दो से अधिक रसायन को मिलाकर नया रासायनिक पदार्थ बनाने के लिए अनुसंधान करते हैं उसी प्रकार साहित्य में साहित्य से जुड़ी बहुत सारी जिज्ञासाएं मनुष्य के मस्तिष्क में उत्पन्न होती है, जिससे कई सवाल उत्पन्न होते हैं जो समस्या उत्पन्न करती है उस समस्या को हल करने के लिए इतिहास तथा वर्तमान को खंगालते हैं और कई तरह के साहित्यिक प्रयोग करते हैं और एक नई परिभाषा तथा साहित्य की रचना करते हैं। इन्हीं प्रयोगों को शोध कहते हैं।
पूरी दुनिया ज्ञान का भंडार है, किंतु वह ज्ञान बिखरा पड़ा है, उस ज्ञान से बहुत ही छोटा वर्ग परिचित होता है, पूरी दुनिया के जानकारी में नहीं होता है। ज्ञान के व्यवस्थापन के लिए शोध कार्य को बढ़ावा दिया गया है। हर देश की सरकारें अपने यहां के ज्ञान को दुनिया तक पहुंचाने के लिए शोध कार्य करवा रही है। अलग अलग तरीके से, अलग - अलग जरिए से भारी मात्रा में शोध कार्य हो रहे हैं। जिसमें सबसे बृहत स्तर पर शोध कार्य विश्वविद्यालयों के माध्यम से हो रहे हैं, क्योंकि विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले छात्र नई ऊर्जा तथा बुद्धि से भरे होते हैं। जिस कारण किसी भी ज्ञान का व्यवस्थापन नए तरीके तथा नई ऊर्जा के साथ होता है । विश्वविद्यालय में अनेक विषय के छात्र होते हैं जिस कारण शोध कार्य अनेक क्षेत्रों में अधिकाधिक मात्रा में हो पाता है । जिससे छुपी हुई ज्ञान के तथ्य निकलकर दुनिया के सामने आ पाता है। विश्वविद्यालय स्तर के शोध में एक खास बात यह है कि विश्वविद्यालय प्रशासन शोध की दिशा निर्देशित करती है तथा शोध के मौलिकता की जांच करती है ताकि साहित्यिक चोरी ना हो सके और जो शोध बनकर तैयार हुआ है वह मूल और नई हो ।
इस प्रकार शोध नियमों और दायरों में बांध दिया गया है और ज्ञान की भी सीमा रेखा तय हो गई है। इसके पीछे यह कारण हो सकता है कि शोधार्थी द्वारा कुछ ऐसा सोध अथवा ज्ञान लोगों के सामने न परोस दिया जाए जिससे धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा राष्ट्र भावना को ठेस पहुंचे।
उदाहरण के लिए मान लिया जाए एक शोधार्थी अपने शोध का विषय चुनता है "भारत की धार्मिक कुर्तियां" । वह शोधार्थी इस विषय का चयन यह सोंच कर करेगा कि इससे धार्मिक कुरीतियां समाज के सामने आएगी जिससे बदलाव होगा। इस विषय का दूसरा पहलू यह भी होगा कि भारत के धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचेगा, क्योंकि भारत में कई धर्म है और उसके प्रति आस्थावानों की संख्या भी अधिक है। अतः ऐसी समस्या का समाधान के लिए भारतीय प्रशासन ने विश्वविद्यालय प्रशासन से शोध को जोड़ दिया। विश्वविद्यालय प्रशासन मार्गदर्शक तय करती है जिसके मार्गदर्शन में शोधार्थी शोध करता है । प्रशासन, मार्गदर्शक तथा शोधार्थी के बीच में सहसंबंध स्थापित होता है कि किन चीजों को करना है तथा किन चीजों को नहीं करना है। मार्गदर्शक विश्वविद्यालय के अध्यादेश के अनुसार शोधार्थी को दिशा दिखाता है कि वह किस क्षेत्र में शोध कर सकता है और किस क्षेत्र में नहीं। शोधार्थी अपने शोध में किन तत्व को शामिल कर सकता है और किन तत्वों को नहीं। शोध में समय तथा स्थान को भी ध्यान में रखना होता है, क्योंकि एक ही शोध विषय एक स्थान के लिए लाभदायक है तो दूसरे स्थान के लिए हानिकारक। उदाहरण स्वरूप बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन की रचना को देख सकते हैं। जिसके कारण बांग्लादेशी मौलवी के द्वारा उन्हें सजा ए मौत की सजा सुनाई गई और वह बांग्लादेश से निर्वासित हो गई, वहीं पर भारत ने उन्हें नागरिकता दे दी और स्वीडन ने भी। उनके उपन्यास में बाबरी मस्जिद टूटने से बौखलाए बांग्लादेशी मुस्लिम अपने हिंदू भाइयों का कत्लेआम किया तथा कई हिंदू धर्मस्थल तोड़ दीये। उनके इस उपन्यास में बांग्लादेशी मुसलमानों की बर्बरता को दर्शाया गया है। जिससे बांग्लादेश की छवि को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर छति पहुंची और राष्ट्र भावना को ठेस पहुंची। वहीं दूसरी और भारतीय तथा अन्य देशों के लिए यह एक सूचना बनकर सामने आई।
ऐसी स्थिति ना हो इसीलिए शोध को नियमों तथा कानूनों में बांध दिया गया, किंतु इसका गलत फायदा राजनीतिक दल उठाते हैं और सत्तारूढ राजनीतिक दल अपनी विचारधारा के अनुसार शोध की दिशा तय करते हैं। जिस कारण ना तो मार्गदर्शक स्वतंत्र रूप से शोध कार्य करवा पाता है और ना ही शोधार्थी स्वच्छंद होकर शोध कार्य कर पाता है।
शोध एक औपचारिक प्रक्रिया है जिस का विषय से लेकर शोध की सामग्री भी नपी तुली होती है। शोध की दिशा भी निर्देशित होती है। इस कारण सृजित होने वाला ज्ञान भी बंधा होता है। शोध एक प्रक्रिया है जिसमें ज्ञान का वैश्वीकरण, सार्वभौमीकरण किया जाता है। शोध में प्रशासन तथा मार्गदर्शक शोधार्थी से अपेक्षा करता है कि वह यूनिवर्सल पैटर्न को फॉलो करें।
मैक्सवेबर के अनुसार:-
The formal view of research process makes bureaucratization and Bureaucracy is a iron cage.
मैक्सवेबर कहते है कि ब्यूरोक्रेसी यानी लालफीताशाही एक लोहे का पिंजरा है और यूनिवर्सिटी सिस्टम में रिसर्च एक ब्यूरोक्रेटिक प्रोसेस है, जिसमें क्षेत्र निर्धारित होता है, शोध की सीमा तय होती है, एक तरह से डिसाइड करता है कि स्टूडेंट का रिसर्च कैसा होगा।
शोध का अर्थ
मनुष्य स्वभावत: एक जिज्ञाशील प्राणी है। अपनी जिज्ञाशील प्रकृति के कारण वह समाज वह प्रकृति में घटित विभिन्न घटनाओं के सम्बन्ध में विविध प्रश्नों को खड़ा करता है। और स्वयं उन प्रश्नों के उत्तर ढूढने का प्रयत्न भी करता है। और इसी के साथ प्रारम्भ होती है। सामाजिक अनुसंधान के वैज्ञानिक प्रक्रिया, वस्तुत: अनुसन्धान का उद्देश्य वैज्ञानिक प्रक्रियाओं के प्रयोग द्वारा प्रश्नों के उत्तरों की खोज करना है। स्पष्ट है कि, किसी क्षेत्र विशेष में नवीन ज्ञान की खोज या पुराने ज्ञान का पुन: परीक्षण अथवा दूसरे तरीके से विश्लेषण कर नवीन तथ्यों का उद्घाटन करना शोध कहलाता है। यह एक निरन्तर प्रक्रिया है, जिसमें तार्किकता, योजनाबद्धता एवं क्रमबद्धता पायी जाती है। जब यह शोध सामाजिक क्षेत्र में होता है तो उसे सामाजिक शोध कहा जाता है। प्राकृतिक एवं जीव विज्ञानों की तरह सामाजिक शोध भी वैज्ञानिक होता है क्योंकि इसमें वैज्ञानिक विधियों की सहायता से निष्कर्षों पर पहुँचा जाता है। वैज्ञानिक विधियों से यहाँ आशय मात्र यह है कि किसी भी सामाजिक शोध को पूर्ण करने के लिए एक तर्कसंगत शोध प्रक्रिया से गुजरना होता है। शोध में वैज्ञानिकता का जहाँ तक प्रश्न है, इस पर भी विद्वानों के अलग-अलग मत हैं। रीड का मानना है कि, ‘‘शोध हमेशा वह नही होता जिसे आप ‘वैज्ञानिक’ कह सकें। शोध कभी-कभी उपयोगी जानकारी एकत्र करने तक सीमित हो सकता है। बहुधा ऐसी जानकारी किसी कार्य विशेष का नियोजन करने और महत्वपूर्ण निर्णयों को लेने हेतु बहुत महत्वपूर्ण होती है। इस प्रकार के शोध कार्य में एकत्र की गयी सामग्री तदन्तर सिद्धान्त निर्माण की ओर ले जा सकती है।’’
शोध एक अनोखी प्रक्रिया है जो ज्ञान के प्रकाश और प्रसार में सहायक होता है।
· इसके द्वारा या तो किसी नये तथ्य, सिद्धान्त, विधि, या वस्तु की खोज की जाती है
या फिर प्राचीन तथ्य, सिद्धान्त, विधि, या वस्तु में परिवर्तन किया जाता है।
· यह सुव्यवस्थित, बौद्धिक, तर्कपूर्ण तथा वस्तुनिष्ठ प्रक्रिया होती है।
· इसमें विभिन्न श्रोतों (प्राथमिक तथा द्वितीयक) से प्राप्त आंकड़े का विश्लेषण
किया जाता है इसलिए चिंतन का महत्वपूर्ण स्थान होता है और पूर्वाग्रहों और
रूढ़ियों की कतई गुंजाइश नहीं होती है।
· शोध के लिए वैज्ञानिक अभिकल्पों का प्रयोग किया जाता है।
· आंकड़े एकत्रित करने के लिए विश्वसनीय उपकरणों का प्रयोग किया जाता है।
· अनुसंधान द्वारा प्राप्त ज्ञान को सत्यापित किया जा सकता है।
· पूरी प्रक्रिया की सफलता के लिए व्यवस्थित तरीके से क्रमबद्ध चरणो से गुजरना
होता है। इन क्रमबद्ध चरणो की व्यवस्था ही शोध का स्वरूप निर्धारक होता है।
अलग-अलग विद्वानों ने इसे कुछ इस तरह परिभाषित किया है-
. रस्क के अनुसार शोध के एक दृष्टिकोण है, जांच-परख का तरीका और मानसिकता
है।
. रैडमैन और मोरी ने अपनी किताब “दि रोमांस ऑफ रिसर्च” में शोध का अर्थ स्पष्ट
करते हुए लिखा है, कि नवीन ज्ञान की प्राप्ति के व्यवस्थित प्रयत्न को हम शोध कहते
हैं।
. एडवांस्ड लर्नर डिक्शनरी ऑफ करेंट इंग्लिश के अनुसार- किसी भी ज्ञान की शाखा
में नवीन तथ्यों की खोज के लिए सावधानीपूर्वक किए गए अन्वेषण या जांच-
पड़ताल को शोध की संज्ञा दी जाती है।
. स्पार और स्वेन्सन ने शोध को परिभाषित करते हुए अपनी पुस्तक में लिखा है कि
कोई भी विद्वतापूर्ण शोध ही सत्य के लिए, तथ्यों के लिए, निश्चितताओं के लिए
अन्चेषण है।
. लुण्डबर्ग ने शोध को परिभाषित करते हुए लिखा है, कि अवलोकित सामग्री का
संभावित वर्गीकरण, साधारणीकरण एवं सत्यापन करते हुए पर्याप्त कर्म विषयक
और व्यवस्थित पद्धति है।
. रूमेल के अनुसार ज्ञान को खोजना, विकसित करना और सत्यापित करना शोध है
सामाजिक शोध को और भी स्पष्ट करने के लिए हम कुछ विद्वानों की परिभाषाओं का उल्लेख कर सकते हैं। पी. वी. यंग के अनुसार, ‘‘हम सामाजिक अनुसंधान को एक वैज्ञानिक कार्य के रूप में परिभाषित कर सकते हैं, जिसका उद्देश्य तार्किक एवं क्रमबद्ध पद्धतियों के द्वारा नवीन तथ्यों की खोज या पुराने तथ्यों को, और उनके अनुक्रमों, अन्तर्सम्बन्धों, कारणों एवं उनको संचालित करने वाले प्राकृतिक नियमों को खोजना है।’’
सी.ए. मोज़र ने सामाजिक शोध को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि, ‘‘सामाजिक घटनाओं एवं समस्याओं के सम्बन्ध में नये ज्ञान की प्राप्ति हेतु व्यवस्थित अन्वेषण को हम सामाजिक शोध कहते हैं।’’ वास्तव में देखा जाये तो, ‘सामाजिक यथार्थता की अन्तर्सम्बन्धित प्रक्रियाओं की व्यवस्थित जाँच तथा विश्लेषण सामाजिक शोध है।’ स्पष्ट है कि विद्वानों ने सामाजिक शोध को अपनी-अपनी तरह से परिभाषित किया है। उन सभी की परिभाषाओं के आधार पर निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता हैं कि सामाजिक शोध सामाजिक जीवन के विविध पक्षों का तार्किक एवं व्यवस्थित अध्ययन है, जिसमें कार्य-कारण सम्बन्धों के आधार पर व्याख्या की जाती है। सामाजिक शोध की प्रासंगिकता तभी है जब किसी निश्चित सैद्धान्तिक एवं अवधारणात्मक संदर्भ संरचना के अन्तर्गत उसे सम्पादित किया जाये। सामाजिक अनुसन्धानकर्त्ता किसी अध्ययन समस्या से सम्बन्धित दो आधारभूत शोध प्रश्नों को उठाता है- क्या हो रहा है? और क्यों हो रहा है? अध्ययन समस्या का ‘क्या हो रहा है?’ प्रश्न का यदि कोर्इ उत्तर खोजता है और उसे देता है तो उसका शोध कार्य विवराणात्मक शोध की श्रेणी में आता है। ‘क्यों हो रहा है?’ ‘का उत्तर देने के लिए उसे कारणात्मक सम्बन्धों की खोज करनी पड़ती है। इस प्रकार का शोध कार्य व्याख्यात्मक शोध कार्य होता है जो कि सिद्धान्त में परिणत होता है। यह सामाजिक घटनाओं के कारणों पर प्रकाश डालता है तथा विविध परिवत्र्यों के मध्य सम्बन्ध स्पष्ट करता है।
व्यापक अर्थ में शोध किसी भी क्षेत्र में 'ज्ञान की खोज करना' या 'विधिवत गवेषणा' करना होता है। वैज्ञानिक अनुसंधान में वैज्ञानिक विधि का सहारा लेते हुए जिज्ञासा का समाधान करने की कोशिश की जाती है। नवीन वस्तुओं की खोज और पुराने वस्तुओं एवं सिद्धान्तों का पुन: परीक्षण करना, जिससे कि नए तथ्य प्राप्त हो सकें, उसे शोध कहते हैं। गुणात्मक तथा मात्रात्मक शोध इसके प्रमुख प्रकारों में से एक हैं।
वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में उच्च शिक्षा की सहज उपलब्धता और उच्च शिक्षा संस्थानों को शोध से अनिवार्य रूप से जोड़ने की नीति ने शोध की महत्ता को बढ़ा दिया है। आज शैक्षिक शोध का क्षेत्र विस्तृत और सघन हुआ है।
अध्ययन से दीक्षित होकर शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करते हुए शिक्षा में या अपने शैक्षिक विषय में कुछ जोड़ने की क्रिया अनुसंधान कहलाती है। पी-एच.डी./ डी.फिल या डी.लिट्/डी.एस-सी। जैसी शोध उपाधियाँ इसी उपलब्धि के लिए दी जाती है। इनमें अध्येता से अपने शोध से ज्ञान के कुछ नए तथ्य या आयाम उद्घाटित करने की अपेक्षा की जाती है। शोध अंग्रेजी शब्द रिसर्च, का पर्याय है किंतु इसका अर्थ 'पुनः खोज' नहीं है अपितु 'गहन खोज' है। इसके द्वारा हम कुछ नया आविष्कृत कर उस ज्ञान परंपरा में कुछ नए अध्याय जोड़ते हैं।
हमारा यह संसार प्राकृतिक एवं चमत्कारिक अवदानों से परिपूर्ण है। अनन्त काल से यहाँ तथ्यों का रहस्योद्घाटन और व्यवस्थित अभिज्ञान का अनुशीलन होता रहा है। कई तथ्यों का उद्घाटन तो दीर्घ अन्तराल के निरन्तर शोध से ही सम्भव हो सका है। जाहिर है कि इन तथ्यों की खोज और उसकी पुष्टि के लिए शोध की अनिवार्यता बनी रही है।
अंग्रेजी में जिसे लोग डिस्कवरी ऑफ फैक्ट्स कहते हैं, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी स्थूल अर्थों में उसी नवीन और विस्मृत तत्त्वों के अनुसन्धान को शोध कहते हैं। पर सूक्ष्म अर्थ में वे इसे ज्ञात साहित्य के पूनर्मूल्यांकन और नई व्याख्याओं का सूचक मानते हैं। दरअसल सार्थक जीवन की समझ एवं समय-समय पर उस समझ का पूनर्मूल्यांकन, नवीनीकरण का नाम ज्ञान है, और ज्ञान की सीमा का विस्तार शोध कहलाता
शोध के लिए प्रयुक्त अन्य हिन्दी पर्याय हैं-- अनुसन्धान, गवेषणा, खोज, अन्वेषण, मीमांसा, अनुशीलन, परिशीलन, आलोचना, रिसर्च आदि।
प्रकृति एवं स्वरूप
शोध का आधार विज्ञान और वैज्ञानिक पद्धति है, जिसमें ज्ञान भी वस्तुपरक होता है। तथ्यों के अवलोकन से कार्य-कारण सम्बन्ध ज्ञात करना शोध की प्रमुख प्रक्रिया है। इस अर्थ में हम स्पष्ट देख पा रहे हैं कि शोध का सम्बन्ध आस्था से कम, परीक्षण से अधिक है। शोध-वृत्ति का उद्गम-स्रोत प्रश्नों से घिरे शोधकर्मी की संशयात्मा होती है। प्रचारित मान्यता की वस्तुपरकता पर शोधकर्मी का संशय उसे प्रश्नाकुल कर देता है; फलस्वरूप वह उसकी तथ्यपूर्ण जाँच के लिए उद्यमशील होता है। स्थापित सत्य है कि हर संशय का मूल दर्शन है; और सामाजिक परिदृश्य का हर नागरिक दर्शन-शास्त्र पढ़े बिना भी थोड़ा-थोड़ा दार्शनिक होता है। संशय-वृत्ति उसके जैविक विकास-क्रम का हिस्सा होता है। यह वृत्ति उसका जन्मजात संस्कार भले न हो, पर जाग्रत मस्तिष्क की प्रश्नाकुलता का अभिन्न अंग बना रहना उसका स्वभाव होता है। प्रत्यक्ष प्रसंग के बारे में अधिक से अधिक ज्ञान हासिल करने की लालसा और प्रचारित सत्य की वास्तविकता सुनिश्चित करने की जिज्ञासा अपने-अपने सामथ्र्य के अनुसार हर किसी में होती है। यही लालसा जीवन के वार्द्धक्य में उसकी चिन्तन-प्रक्रिया का सहचर बन जाती है, जिसे जीवन-यापन के दौरान मनुष्य अपनी प्रतिभा और उद्यम से निखारता रहता है।
वैज्ञानिक शोध में तथ्य-संग्रह और जिज्ञासा के दोहन की व्यवस्थित पद्धति है। शोध की यह पद्धति वैज्ञानिक सूचनाओं एवं सिद्धान्तों की दृष्टि से वैश्विक सम्पदा के वैशिष्ट्य की व्याख्या का अवसर देती है। शैक्षिक सन्दर्भों एवं ज्ञान की विभिन्न शाखाओं के अनुसार वैज्ञानिक शोध का कोटि-विभाजन किया जा सकता है।
मानविकी विषयों के शोध में लागू होनेवाली विभिन्न विधियों में प्रमुख हैं--हर्मेन्युटिक्स (hermeneutics), संकेत विज्ञान (semiotics), और सापेक्षवादी ज्ञान मीमांसा (relativist epistemology) पद्धति। बाइबिल, ज्ञान साहित्य, दार्शनिक एवं साहित्यिक ग्रन्थों की व्याख्या की विशेष शाखा हर्मेन्युटिक्स है। प्रारम्भ में हर्मेन्युटिक्स का प्रयोग शास्त्रों की व्याख्या या भाष्य मात्र के लिए होता था, पर बाद के दिनों इस पद्धति का उपयोग मानविकी विषयों की समझ बनाने में होने लगा। आधुनिक हर्मेन्युटिक्स में लिखित-मौखिक संवाद के साथ-साथ पूर्वाग्रह एवं पूर्वधारणाएँ भी शामिल हैं। हर्मेन्युटिक्स और भाष्य शब्द कभी-कभी पर्याय के रूप में उपयोग कर लिए जाते हैं, किन्तु हर्मेन्युटिक्स जहाँ लिखित-मौखिक सभी संवादों से सम्बद्ध एक व्यापक अनुशासन है, वहीं भाष्य प्रथमतः और मूलतः पाठ-आधारित व्याख्या है। ध्यातव्य है कि एकवचन रूप में हर्मेन्युटिक का अर्थ व्याख्या की विशेष विधि है।
सापेक्षवादी ज्ञान मीमांसा (relativist epistemology) पदबन्ध का उपयोग सर्वप्रथम स्कॉटलैण्ड के दार्शनिक फ्रेडरिक जेम्स फेरियर ने ज्ञान के विभिन्न पहलुओं से सबद्ध दर्शन की शाखाओं का वर्णन करने हेतु किया था। सारतः यह ज्ञान एवं समुचित आस्था का अध्ययन है। यह सवाल करता है कि ज्ञान क्या है और यह कैसे प्राप्त किया जा सकता है।
अत्याधुनिक विकास के कारण इधर ज्ञान की शाखाओं में बहुत विस्तार आया है। साहित्य-कला-संस्कृति से सम्बद्ध शोध की दिशाएँ विराट हो गई हैं। कलात्मक एवं सृजनात्मक रचनाओं से सम्बद्ध विषय पर केन्द्रित शोध की धाराएँ बहुआयामी हो गई हैं। इसकी शोध-प्रक्रिया ज्ञान की कई शाखाओं से जा मिली हैं। ज्ञानमूल की प्राप्ति एवं तथ्यान्वेषण हेतु चिन्तन की यह नई पद्धति शुद्ध वैज्ञानिक पद्धतियों का विकल्प भी प्रदान करती है।
शोध मुख्य दो प्रकार के होते हैं:-
1. हाइपोथेसिस टेस्टिंग रिसर्च
2. दूसरा हाइपोथेसिस जेनरेटिंग रिसर्च
थीसिस
कोई भी वह बात जिस पर हम विश्वास करते हैं और चाहते हैं कि सामने वाला भी करें। इसके लिए हम अलग अलग उदाहरण देकर उस बात को समझाने की कोशिश करते हैं हाइपोथेसिस कहलाता है। हाइपो अर्थात छोटा। थेसिस यानी कि जो हम सिद्ध करते हैं।
जब किसी शोधार्थी के मन में एक विचार आता है दो लाइन का, चार लाइन का या एक पैराग्राफ का तो उसे हाइपोथेसिस कहते हैं जब वह विचार सिद्ध हो जाता है तब वह थेसिस बन जाता है।
किसी शोधार्थी के लिए यह जरूरी है कि कोई एक विचार अथवा टॉपिक उसे गाइड करता रहे या उसे उसके वैचारिक बिंदु की दिशा दिखाता रहे। शोधार्थी जब उस विचार से सहमति या असहमति को ढूंढता है तो उसे निष्कर्ष प्राप्त होता है उस सहमति या असहमति को ध्यान में रखकर विचार को सिद्ध करने के लिए उससे संबंधित खोज करता है।
हाइपोथेसिस टेस्टिंग रिसर्च : यह तरीका बहुत ही कॉमन है । इसे प्रयोगात्मक शोध या एक्सपेरिमेंटल रिसर्च भी कहते हैं। जिस विचार पर विश्वास कर रहे हैं वह सही है या नहीं जानने के लिए प्रयोग करने पर शोध का प्रारूप निकलता है।
हाइपोथेसिस जेनरेटिंग रिसर्च : इस प्रकार के शोध में शोध के दौरान पता चलता है कि विचार ये है। इसमें हम हाइपोथेसिस को जबरदस्ती प्रूफ करने की कोशिश करते हैं। जो इस मेथड की कमी है। हाइपोथेसिस जेनरेटिंग के दो प्रकार हैं पहला व्याख्यात्मक यानी डिस्क्रिप्टिव रिसर्च इसे एथनोग्राफिक रिसर्च भी कहते हैं। दूसरा एक्सप्लोरेट्री रिसर्च यानी जहां पहले से कोई शोध नहीं हुआ हो।
व्याख्यात्मक शोध : इस प्रकार के शोध में अपने विचारों को सिद्ध करने के लिए उस विचार की अलग - अलग तरह से व्याख्या करते हैं तथा उस विचार को सिद्ध करते हैं।
एक्सप्लोरेट्री रिसर्च : इस प्रकार के शोध में उन समस्याओं को चुनते हैं जहां पहले से कोई शोध ना हुआ हो तथा उस क्षेत्र में उसके विचार को सिद्ध करने के लिए उस विचार को एक्सप्लोर करते हैं। उस विचार से संबंधित तथ्यों का पता लगाते हैं।
गणित और विज्ञान में ऐसे अनेक शोध किए जाते हैं जिनका परिणाम वस्तुओं की मात्रा, आकार, शक्ति, रूप परिवर्तन आदि से संबंधित सिद्धांतों का आविष्कार होता है। प्रथम दृष्टि में शोध के फलों का प्रत्यक्ष प्रयोजन लक्षित नहीं होता। परंतु इन्हीं सिद्धांतों के आधार पर प्रायोगिक शोध के द्वारा ना जाने कितने वैज्ञानिक कार्य किए जाते हैं, नई चीजों का आविष्कार किया जाता है। अतः सैद्धांतिक शोधों का प्रयोजन कहीं अधिक है।
साहित्य, सौंदर्यशास्त्र एवं मानविकी के विषयों के शोधों का प्रयोजन एक तरह का है। अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान आदि के कुछ शोधों का प्रायोगिक उपयोग हो सकता है जैसे अर्थशास्त्री सिद्धांतों का प्रयोग कर आर्थिक योजनाएं आयोजित की जा सकती है और मनोवैज्ञानिक शोध से रोगों की चिकित्सा शिक्षा विधाओं का निर्माण आदि संभव है।
साहित्य, कला, दर्शन, इतिहास आदि के शोधों से जिनका कोई प्रत्यक्ष लौकिक उपयोग दृष्टिगत नहीं होता उन सब सौंदर्यमूलक तत्वों एवं जीवन मूल्यों का ज्ञान होता है, जिनको किस जाति ने अपने अतीत की समस्त साधनों से संचित किया है, जिनको वर्चस्व के रूप में सुरक्षित रखा है। इस संपत्ति के मूल्य के ज्ञान से जाति की अस्मिता बनी रहती है, उसके आत्म गौरव की नींव सुदृढ़ रहती है। इस जातीय गौरव से आत्मविश्वास और आत्मबल का विकास होता है जो जाति के सर्वांगीण उन्नति में सहायक होते हैं। इस तरह इन सौंदर्यमूलक विषयों का शोध अत्याधिक सांस्कृतिक महत्व रखता है।
जितना महत्व विज्ञान यथा रसायन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, जीव विज्ञान मे शोध तथा उसके परिणाम महत्व रखते हैं उतना ही महत्व साहित्य, सौंदर्य, दर्शन, सांस्कृतिक में समाजिक विज्ञान के शोध महत्व रखते हैं। जिस तरह से विज्ञान में शोध भौतिक विकास को आगे बढ़ाता है उसी प्रकार समाज विज्ञान का शोध सामाजिक विकास को आगे बढ़ाता है तथा मनुष्य को की बुद्धि को विकसित करने में सहायता प्रदान करता है।
संदर्भ
1.कक्षा व्याख्यान : डॉ. प्रशांत खत्री।
2.अनुसंधान प्रविधि सिद्धान्त और प्रक्रिया : एस. एन. गणेशन। 3 .शोध प्रविधि : गूगल सर्चयह आलेख पूर्णतः मौलिक नही है। पाठकों की सुविधा के लिए सूचना को एक जगह संग्रहित किया गया है।
बहुत उपयोगी है।
ReplyDeleteशुक्रिया।
Deleteसारगर्भित लेख
ReplyDeleteबहुत - बहुत धन्यवाद।
DeleteThanku so much. .Very informative
ReplyDeleteThanks to read this.
Deleteइस ज्ञानवर्धक लेख के लिए साधुवाद।
ReplyDeleteशोध से सम्बंधित अन्य जानकारी हेतु यहाँ भी देखें।
https://vkmail93.blogspot.com/2017/11/blog-post_19.html?m=1
So informative
ReplyDeleteThankyou😊
DeleteVery nice informative........
ReplyDeleteThanks to read this.
DeleteSuper sir ji
ReplyDeleteThankyou so much
DeleteNice 👍☺️ sir
ReplyDeleteDhanyawad.
DeleteNice 👍
ReplyDeleteThanks
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