Abhivyakti ki swatantrata
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
अभिब्यक्ति की स्वतंत्रता अर्थात किसी सूचना या विचार को बोलकर, लिखकर या किसी अन्यर रूप में बिना किसी रोकटोक के अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहलाती है।
नाटक रंगमंच अथवा सिनेमा या कोई भी कला अभिव्यक्ति का माध्यम है अपने विचारों के संप्रेषण का माध्यम है। अतः इसमें भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जरूरी हो जाती है। बात करें अगर नाटक की तो नाटक संप्रेषण का सबसे बड़ा माध्यम है जिसमें आमने - सामने अपनी बातों को, अपने विचारों को रख पाते हैं अतः इसकी स्वतंत्रता, या कहें नाट्याभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाती है। किंतु ऐसा नहीं है नाटक रंगमंच के द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हमेशा से दोहन होता रहा है, जो कि समाज के द्वारा हो अथवा राजनीति के द्वारा। उदाहरणस्वरूप विजय तेंडुलकर या बादल सरकार, सफदर हाशमी आदि ऐसे कई बड़े कलाकार हैं जो रंगमंच से जुड़े रहे हैं, नाटक लिखते रहे हैं जिनके नाटकों पर प्रतिबंध लगा दिया गया तथा चलते प्रदर्शन को रोक दिया गया। यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन ही तो है।
अभिव्यकित की स्वतंत्रता अपने भावों और विचारों को व्यक्त करने का एक राजनीतिक अधिकार है। इसके तहत कोई भी व्यक्ति न सिर्फ विचारों का प्रचार-प्रसार कर सकता है, बल्कि किसी भी तरह की सूचना का आदान-प्रदान करने का अधिकार रखता है। हालांकि, यह अधिकार सार्वभौमिक नहीं है और इस पर समय-समय पर युकितयुक्त निर्बंधन लगाए जा सकते हैं। राष्ट्र-राज्य के पास यह अधिकार सुरक्षित होता है कि वह संविधान और कानूनों के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को किस हद तक जाकर बाधित करने का अधिकार रखता है। कुछ विशेष परिस्थितियों में, जैसे- वाह्य या आंतरिक आपातकाल या राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर अभिव्यकित की स्वंतत्रता सीमित हो जाती है। संयुक्त राष्ट्र की सार्वभौमिक मानवाधिकारों के घोषणा पत्र में मानवाधिकारों को परिभाषित किया गया है। इसके अनुच्छेद 19 में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति के पास अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार होगा जिसके तहत वह किसी भी तरह के विचारों और सूचनाओं के आदान-प्रदान को स्वतंत्र होगा।
अभिब्यक्ति की स्वतंत्रता अर्थात किसी सूचना या विचार को बोलकर, लिखकर या किसी अन्य रूप में बिना किसी रोकटोक के अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहलाती है।
नाटक रंगमंच अथवा सिनेमा या कोई भी कला अभिव्यक्ति का माध्यम है अपने विचारों के संप्रेषण का माध्यम है। अतः इसमें भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जरूरी हो जाती है। बात करें अगर नाटक की तो नाटक संप्रेषण का सबसे बड़ा माध्यम है जिसमें आमने - सामने अपनी बातों को, अपने विचारों को रख पाते हैं अतः इसकी स्वतंत्रता, या कहें नाट्याभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाती है। किंतु ऐसा नहीं है नाटक रंगमंच के द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हमेशा से दोहन होता रहा है, जो कि समाज के द्वारा हो अथवा राजनीति के द्वारा। उदाहरणस्वरूप विजय तेंडुलकर या बादल सरकार, सफदर हाशमी आदि ऐसे कई बड़े कलाकार हैं जो रंगमंच से जुड़े रहे हैं, नाटक लिखते रहे हैं जिनके नाटकों पर प्रतिबंध लगा दिया गया तथा चलते प्रदर्शन को रोक दिया गया। यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन ही तो है।
अभिव्यकित की स्वतंत्रता अपने भावों और विचारों को व्यक्त करने का एक राजनीतिक अधिकार है। इसके तहत कोई भी व्यक्ति न सिर्फ विचारों का प्रचार-प्रसार कर सकता है, बल्कि किसी भी तरह की सूचना का आदान-प्रदान करने का अधिकार रखता है। हालांकि, यह अधिकार सार्वभौमिक नहीं है और इस पर समय-समय पर युकितयुक्त निर्बंधन लगाए जा सकते हैं। राष्ट्र-राज्य के पास यह अधिकार सुरक्षित होता है कि वह संविधान और कानूनों के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को किस हद तक जाकर बाधित करने का अधिकार रखता है। कुछ विशेष परिस्थितियों में, जैसे- वाह्य या आंतरिक आपातकाल या राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर अभिव्यकित की स्वंतत्रता सीमित हो जाती है। संयुक्त राष्ट्र की सार्वभौमिक मानवाधिकारों के घोषणा पत्र में मानवाधिकारों को परिभाषित किया गया है। इसके अनुच्छेद 19 में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति के पास अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार होगा जिसके तहत वह किसी भी तरह के विचारों और सूचनाओं के आदान-प्रदान को स्वतंत्र होगा।
लोकतंत्र की रीढ़ - अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सुचारू रूप से चलाने के लिए बोलने की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आज़ादी बहुत ज़रूरी है और उसे आज़ादी की पहली शर्त माना जाता है. बोलने की स्वतंत्रता सभी अधिकारों की जननी है. सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक मुद्दों पर लोगों की राय बनाने के लिए बोलने की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आज़ादी महत्वपूर्ण है.
नागरिकों को बोलने की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आज़ादी का प्रावधान किया गया है. बोलने की स्वतंत्रता लोकतंात्रिक सरकार के लिए कवच है. लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सही तरीक़े से लागू करने के लिए इस तरह की स्वतंत्रता बेहद ज़रूरी है. यह स़िर्फ नागरिकों के मूलभूत अधिकारों को ही नहीं, बल्कि देश की एकता और एकरूपता को भी बढ़ावा देता है. हालांकि संविधान के अनुच्छेद 19(1) में जो स्वतंत्रता दी गई है, वह पूर्ण या काफी नहीं है. ये सभी अधिकार संसद या राज्यविधानसभा के बनाए क़ानूनों के तहत नियंत्रित, नियमित या कम करने के लिए जवाबदेह हैं। अनुच्छेद 19 के नियम (2) से (6) में उन आधारों और लक्ष्यों की व्याख्या है जिसके आधार पर इन अधिकारों को नियंत्रित किया जा सकता है.अनुच्छेद 19 (1) के तहत मिली अभिव्यक्ति की आज़ादी मेंकोई भी नागरिक किसी भी माध्यम के द्वारा, किसी भी मुद्दे पर अपनी राय और विचार दे सकता है. इन माध्यमों में व्यक्तिगत, लेखन, छपाई, चित्र, सिनेमा इत्यादि शामिल हैं. जिसमें संचार की आज़ादी और अपनी राय को सार्वजनिक तौर पर रखने और उसे प्रचारित करने का अधिकार भी शामिल है.
प्रेस की स्वतंत्रता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अभिन्न अंग है और लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए बहुत ही ज़रूरी है. भारतीय संविधान में यह स्वतंत्रता मौलिक अधिकार के रूप में दी गई है. प्रेस व्यक्तिगत अधिकारों को सम्मान देने और वैधानिक सिद्धांतों और क़ानूनों के अंतर्गत काम करने के लिए बाध्य है. ये सिद्धांत और क़ानून न्यूनतम मानकों को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिक महत्वपूर्ण सिद्धांतों में दखल नहीं देते हैं. मीडिया लोकतांत्रिक व्यवस्था का चौथा स्तंभ है. बाक़ी तीनों स्तंभों में, जहां विधायिका समाज के लिए क़ानून बनाती है, वहीं कार्यपालिका उसे लागू करने के लिए क़दम उठाती है, तीसरा महत्वपूर्ण स्तंभ न्यायपालिका है जो यह सुनिश्चित करती है कि सभी कार्रवाइयां और फैसले वैधानिक हों और उनका सही तरीक़े से पालन किया जाए. चौथे स्तंभ-यानी प्रेस को इन क़ानूनों और संवैधानिक प्रावधानों के अंदर रहकर सार्वजनिक और राष्ट्रीय हित में काम करना होता है. इससे यही संकेत मिलता है कि कोई भी क़ानून से ऊपर नहीं है. जब भारत के संविधान में नागरिकों के लिए संविधान में बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सुनिश्चित किया गया, तब यह भी सुनिश्चित किया गया कि यह स्वतंत्रता पूर्ण नहीं थी और कोई भी अभिव्यक्ति-चाहे वह शाब्दिक हो या दृश्य माध्यम से-वह विधायिका द्वारा बनाए गए और कार्यपालिका के द्वारा लागू किए गए संवैधानिक नियमों का उल्लंघन न करती हो. अगर प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर आकर काम करता है तो न्यायपालिका के पास उस पर मौलिक अधिकार उल्लंघन के तहत कार्रवाई का हक़ है।
प्रिंट, रेडियो और टीवी एक स्वस्थ लोकतंत्र विकसित करने के लिए लोगों को जागरूक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं. अनुच्छेद 19(2) के तहत रखे गए प्रावधानों में एक नागरिक को अपने विचार रखने, प्रकाशित करने और प्रचारित करने का अधिकार है, और इस अधिकार पर कोई भी रोक अनुच्छेद 19(1) के तहत ग़लत होगी।
विचारो का आदान-प्रदान मानव-सभता की शुरआत से ही जुडा हुआ है। विचारो के आदान-प्रदान से मानव का व्यक्तिक विकास तो होता है, समाज की सामाजिकता भी इसी से बनती है और उसका विकास भी होता है। वैसे, शायद ही कभी सभ्यता के इतिहास मे अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता दी गई है।
सूचनाओं के प्रस्तुतीकरण पर किसी न किसी का प्रभाव रहता है चाहे वह राजनीतिक हो प्रजातीय हो अथवा सामाजिक किसी से कभी कभी सूचनाओं को दुर्भावना से प्रेरित घोषित कर दिया जाता है। भारत में कई लेखक की लिखित पुस्तकें तथा चित्रकार के पेंटिंग्स को प्रतिबंधित किया जा चुका है। विजय तेंडुलकर जैसे नाटककार द्वारा लिखित नाटक की प्रस्तुति को भी बैन किया जा चुका है।
मौलिक अधिकारों पर उचित प्रतिबंध
प्रायः हम संविधान के अनुच्छेद 19 (1) में हमारे मौलिक अधिकारों से जुड़ी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करते हैं, लेकिन भूलते हैं कि अनुच्छेद 19 (2) मौलिक अधिकारों पर उचित प्रतिबन्ध भी लगाता है। मौलिक अधिकारों के साथ-साथ यह अनुच्छेद मौलिक कर्तव्यों की भी बात करता है…
हमारा संविधान भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का निरंकुश अधिकार किसी को नहीं देता है।
संविधान के अनुच्छेद 19 (2) में उन तथ्यों का उल्लेख है, जिनके अंतर्गत राज्य, भाषण और अनर्गल अभिव्यक्ति पर उचित प्रतिबंध लगा सकता है।
किसी ऐसे भाषण या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है जिससे:
देश की सुरक्षा को खतरा हो।
विदेशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध आहत हों।
देश की शान्ति, कानून व्यवस्था खराब होवे।
शालीनता, नैतिकता पर आंच आये।
अदालत की अवमानना हो।
किसी अपराध के लिए प्रोत्साहन मिले और भारत की एकता अखंडता संप्रभुता को खतरा हो।
संविधान ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी है, ताकि विचारों संबंधी चर्चा हो, राष्ट्र व्यक्ति समाज समृद्ध होवे।
अतः हमारा संविधान ऐसे किसी भी नाट्य प्रदर्शन अथवा किसी भी प्रकार की प्रस्तुति का अधिकार नहीं देता जिससे देश या समाज आहत हो या किसी धार्मिक भावना को ठेस पहुंचे।
लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सुचारू रूप से चलाने के लिए बोलने की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आज़ादी बहुत ज़रूरी है और उसे आज़ादी की पहली शर्त माना जाता है. बोलने की स्वतंत्रता सभी अधिकारों की जननी है. सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक मुद्दों पर लोगों की राय बनाने के लिए बोलने की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आज़ादी महत्वपूर्ण है.
नागरिकों को बोलने की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आज़ादी का प्रावधान किया गया है. बोलने की स्वतंत्रता लोकतंात्रिक सरकार के लिए कवच है. लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सही तरीक़े से लागू करने के लिए इस तरह की स्वतंत्रता बेहद ज़रूरी है. यह स़िर्फ नागरिकों के मूलभूत अधिकारों को ही नहीं, बल्कि देश की एकता और एकरूपता को भी बढ़ावा देता है. हालांकि संविधान के अनुच्छेद 19(1) में जो स्वतंत्रता दी गई है, वह पूर्ण या काफी नहीं है. ये सभी अधिकार संसद या राज्यविधानसभा के बनाए क़ानूनों के तहत नियंत्रित, नियमित या कम करने के लिए जवाबदेह हैं। अनुच्छेद 19 के नियम (2) से (6) में उन आधारों और लक्ष्यों की व्याख्या है जिसके आधार पर इन अधिकारों को नियंत्रित किया जा सकता है.अनुच्छेद 19 (1) के तहत मिली अभिव्यक्ति की आज़ादी मेंकोई भी नागरिक किसी भी माध्यम के द्वारा, किसी भी मुद्दे पर अपनी राय और विचार दे सकता है. इन माध्यमों में व्यक्तिगत, लेखन, छपाई, चित्र, सिनेमा इत्यादि शामिल हैं. जिसमें संचार की आज़ादी और अपनी राय को सार्वजनिक तौर पर रखने और उसे प्रचारित करने का अधिकार भी शामिल है.
प्रेस की स्वतंत्रता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अभिन्न अंग है और लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए बहुत ही ज़रूरी है. भारतीय संविधान में यह स्वतंत्रता मौलिक अधिकार के रूप में दी गई है. प्रेस व्यक्तिगत अधिकारों को सम्मान देने और वैधानिक सिद्धांतों और क़ानूनों के अंतर्गत काम करने के लिए बाध्य है. ये सिद्धांत और क़ानून न्यूनतम मानकों को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिक महत्वपूर्ण सिद्धांतों में दखल नहीं देते हैं. मीडिया लोकतांत्रिक व्यवस्था का चौथा स्तंभ है. बाक़ी तीनों स्तंभों में, जहां विधायिका समाज के लिए क़ानून बनाती है, वहीं कार्यपालिका उसे लागू करने के लिए क़दम उठाती है, तीसरा महत्वपूर्ण स्तंभ न्यायपालिका है जो यह सुनिश्चित करती है कि सभी कार्रवाइयां और फैसले वैधानिक हों और उनका सही तरीक़े से पालन किया जाए. चौथे स्तंभ-यानी प्रेस को इन क़ानूनों और संवैधानिक प्रावधानों के अंदर रहकर सार्वजनिक और राष्ट्रीय हित में काम करना होता है. इससे यही संकेत मिलता है कि कोई भी क़ानून से ऊपर नहीं है. जब भारत के संविधान में नागरिकों के लिए संविधान में बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सुनिश्चित किया गया, तब यह भी सुनिश्चित किया गया कि यह स्वतंत्रता पूर्ण नहीं थी और कोई भी अभिव्यक्ति-चाहे वह शाब्दिक हो या दृश्य माध्यम से-वह विधायिका द्वारा बनाए गए और कार्यपालिका के द्वारा लागू किए गए संवैधानिक नियमों का उल्लंघन न करती हो. अगर प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर आकर काम करता है तो न्यायपालिका के पास उस पर मौलिक अधिकार उल्लंघन के तहत कार्रवाई का हक़ है।
प्रिंट, रेडियो और टीवी एक स्वस्थ लोकतंत्र विकसित करने के लिए लोगों को जागरूक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं. अनुच्छेद 19(2) के तहत रखे गए प्रावधानों में एक नागरिक को अपने विचार रखने, प्रकाशित करने और प्रचारित करने का अधिकार है, और इस अधिकार पर कोई भी रोक अनुच्छेद 19(1) के तहत ग़लत होगी।
विचारो का आदान-प्रदान मानव-सभता की शुरआत से ही जुडा हुआ है। विचारो के आदान-प्रदान से मानव का व्यक्तिक विकास तो होता है, समाज की सामाजिकता भी इसी से बनती है और उसका विकास भी होता है। वैसे, शायद ही कभी सभ्यता के इतिहास मे अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता दी गई है।
सूचनाओं के प्रस्तुतीकरण पर किसी न किसी का प्रभाव रहता है चाहे वह राजनीतिक हो प्रजातीय हो अथवा सामाजिक किसी से कभी कभी सूचनाओं को दुर्भावना से प्रेरित घोषित कर दिया जाता है। भारत में कई लेखक की लिखित पुस्तकें तथा चित्रकार के पेंटिंग्स को प्रतिबंधित किया जा चुका है। विजय तेंडुलकर जैसे नाटककार द्वारा लिखित नाटक की प्रस्तुति को भी बैन किया जा चुका है।
मौलिक अधिकारों पर उचित प्रतिबंध
प्रायः हम संविधान के अनुच्छेद 19 (1) में हमारे मौलिक अधिकारों से जुड़ी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करते हैं, लेकिन भूलते हैं कि अनुच्छेद 19 (2) मौलिक अधिकारों पर उचित प्रतिबन्ध भी लगाता है। मौलिक अधिकारों के साथ-साथ यह अनुच्छेद मौलिक कर्तव्यों की भी बात करता है…
हमारा संविधान भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का निरंकुश अधिकार किसी को नहीं देता है।
संविधान के अनुच्छेद 19 (2) में उन तथ्यों का उल्लेख है, जिनके अंतर्गत राज्य, भाषण और अनर्गल अभिव्यक्ति पर उचित प्रतिबंध लगा सकता है।
किसी ऐसे भाषण या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है जिससे:
देश की सुरक्षा को खतरा हो।
विदेशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध आहत हों।
देश की शान्ति, कानून व्यवस्था खराब होवे।
शालीनता, नैतिकता पर आंच आये।
अदालत की अवमानना हो।
किसी अपराध के लिए प्रोत्साहन मिले और भारत की एकता अखंडता संप्रभुता को खतरा हो।
संविधान ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी है, ताकि विचारों संबंधी चर्चा हो, राष्ट्र व्यक्ति समाज समृद्ध होवे।
अतः हमारा संविधान ऐसे किसी भी नाट्य प्रदर्शन अथवा किसी भी प्रकार की प्रस्तुति का अधिकार नहीं देता जिससे देश या समाज आहत हो या किसी धार्मिक भावना को ठेस पहुंचे।
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