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Showing posts from May, 2019

शोध की अर्थ, प्रकृति एवं स्वरूप

                    शोध का अर्थ, प्रकृति एवं स्वरूप                                      भूमिका                    किसी भी समस्या का समाधान ढूंढने के लिए किया गया कार्य शोध है। अर्थात समाज में बहुत सी समस्याएं हैं, कुछ बड़ी तो कुछ छोटी किंतु समस्याएं बहुत से हैं । किसी एक समस्या को चुनकर उसका समाधान ढूंढने के लिए जो कार्य किए जाते हैं उसे शोध कहते हैं। जिस प्रकार एक वैज्ञानिक रासायनिक प्रयोगशाला में किसी रासायनिक समस्या को हल करने के लिए दो या दो से अधिक रसायन को मिलाकर नया रासायनिक पदार्थ बनाने के लिए अनुसंधान करते हैं उसी प्रकार साहित्य में साहित्य से जुड़ी बहुत सारी जिज्ञासाएं मनुष्य के मस्तिष्क में उत्पन्न होती है, जिससे कई सवाल उत्पन्न होते हैं जो समस्या उत्पन्न करती है उस समस्या को हल करने के लिए इतिहास तथा वर्तमान को खंगालते हैं और कई तरह के साहित्यिक प्रयोग करते हैं और एक नई परिभाषा तथा साहित्य की रचना करते हैं। इन्हीं प्रयोगों को शोध कहते हैं।                                पूरी दुनिया ज्ञान का भंडार है, किंतु वह ज्ञान बिखरा पड़ा है, उस ज्ञान से बहुत ही  छोटा वर्ग परिचित

समाजकार्य के दर्शन एवं मूल्य

                    समाज कार्य के दर्शन एवं मूल्य                              समाज कार्य के दर्शन का तात्पर्य है कि इसके अर्थ और ज्ञान का वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुतिकरण करते हुए इसके आदर्शों और मूल्यों का सही ढंग से निरूपण किया जाय।                                समाज-कार्य या समाजसेवा एक शैक्षिक एवं व्यावसायिक विधा है जो सामुदायिक सगठन एवं अन्य विधियों द्वारा लोगों एवं समूहों के जीवन-स्तर को उन्नत बनाने का प्रयत्न करता है। सामाजिक कार्य का अर्थ है सकारात्मक, और सक्रिय हस्तक्षेप के माध्यम से लोगों और उनके सामाजिक माहौल के बीच अन्तःक्रिया प्रोत्साहित करके व्यक्तियों की क्षमताओं को बेहतर करना ताकि वे अपनी ज़िंदगी की ज़रूरतें पूरी करते हुए अपनी तकलीफ़ों को कम कर सकें। इस प्रक्रिया में समाज-कार्य लोगों की आकांक्षाओं की पूर्ति करने और उन्हें अपने ही मूल्यों की कसौटी पर खरे उतरने में सहायक होता है।                                 समाज-कार्य का अधिकांश ज्ञान समाजशास्त्रीय सिद्धांतों से लिया गया है, लेकिन समाजशास्त्र जहाँ मानव-समाज और मानव-संबंधों के सैद्धांतिक पक्ष का अध्ययन करता है, वही

Bhaktikal : Hindi kavya ka swarnyug

              भक्तिकाल : हिंदी काव्य का स्वर्णयुग                                        कुछ विद्वानों का विचार है कि भक्तिकाल हारी हुई जाति की मनोवृत्ति का परिणाम है । पिछले चार पाँच सौ वर्षों से लड़ते -लड़ते भारतीय बहुत निराश हो चुके थे । राजनैतिक दृष्टि से वे परतंत्र हो गए थे और सामाजिक दृष्टि से भी स्वयं को हीन या पतित अनुभव कर रहे थे । देश में एकछत्र राज्य का अभाव था । जनता में भय था । ऐसे निराशा और असहाय वातावरण में ईश्वर की ओर उनकी आस्था का बढ़ना सहज ही था । उन्हें एकमात्र भगवान का सहारा दिखाई दिया ।                                  डॉ. ग्रियर्सन इसे ईसाइयत की देन मानते हैं । उनके विचार से भारत में भक्ति का प्रारम्भ तब हुआ, जब यहाँ ईसाई आकर बस गए और उन्होंने अपने धर्म का प्रचार आरम्भ कर दिया ।  ग्रियर्सन का यह मत सर्वथा निराधार है, क्योंकि इसाइयों के आगमन से बहुत पहले से ही (वैदिक काल से) इस देश में भक्ति का अस्तित्व रहा है ।                                  आचार्य शुक्ल के मत से भारत में भक्ति का उदय मुसलमानों की विजय की प्रतिक्रिया में हुआ । उनका कथन है कि इतने भारी राजन

Ras siddhant

                                  रस सिद्धान्त           श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है। रस से जिस भाव की अनुभूति होती है वह रस का स्थायी भाव होता है। रस, छंद और अलंकार - काव्य रचना के आवश्यक अवयव हैं।            रस अन्त:करण की वह शक्ति है, जिसके कारण इन्द्रियाँ अपना कार्य करती हैं, मन कल्पना करता है, स्वप्न की स्मृति रहती है। रस आनंद रूप है और यही आनंद विशाल का, विराट का अनुभव भी है। यही आनंद अन्य सभी अनुभवों का अतिक्रमण भी है। आदमी इन्द्रियों पर संयम करता है, तो विषयों से अपने आप हट जाता है। परंतु उन विषयों के प्रति लगाव नहीं छूटता। रस का प्रयोग सार तत्त्व के अर्थ में चरक, सुश्रुत में मिलता है। दूसरे अर्थ में, अवयव तत्त्व के रूप में मिलता है। सब कुछ नष्ट हो जाय, व्यर्थ हो जाय पर जो भाव रूप तथा वस्तु रूप में बचा रहे, वही रस है। रस के रूप में जिसकी निष्पत्ति होती है, वह भाव ही है। जब रस बन जाता है, तो भाव नहीं रहता। केवल रस रहता है। उसकी भावता अपना रूपांतर कर लेती है। रस अपूर्व की उत

Stage management's

                            मंच प्रबंधन प्रबंधन            प्रबन्धन  (Management) का अर्थ है - उपलब्ध संसाधनों का दक्षतापूर्वक तथा प्रभावपूर्ण तरीके से उपयोग करते हुए लोगों के कार्यों में समन्वय करना ताकि लक्ष्यों की प्राप्ति सुनिश्चित की जा सके। प्रबन्धन के अन्तर्गत आयोजन (planning), संगठन-निर्माण (organizing), स्टाफिंग (staffing), नेतृत्व करना (leading या directing), तथा संगठन अथवा पहल का नियंत्रण करना आदि आते हैं। संगठन भले ही बड़ा हो या छोटा, लाभ के लिए हो अथवा गैर-लाभ वाला, सेवा प्रदान करता हो अथवा विनिर्माणकर्ता, प्रबंध सभी के लिए आवश्यक है। प्रबंध इसलिए आवश्यक है कि व्यक्ति सामूहिक उद्देश्यों की पूर्ति में अपना श्रेष्ठतम योगदान दे सकें। प्रबंध में पारस्परिक रूप से संबंधित वह कार्य सम्मिलित हैं जिन्हें सभी प्रबंधक करते हैं।      प्रबंध एक सार्वभौमिक क्रिया है जो किसी भी संगठन का अभिन्न अंग है। अब हम उन कुछ कारणों का अध्ययन करेंगे जिसके कारण प्रबंध इतना महत्त्वपूर्ण हो गया है- 1. प्रबंध सामूहिक लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायक होता है- प्रबंध की आवश्यकता प्रबंध के लिए

Copyright Act

                       स्वत्वाधिकार अधिनियम                    किसी भी कला से संबंधित, साहित्य से संबंधित, या तो संगीत से संबंधित कार्य, जिसका, उस सर्जक के मौलिक विचार (ख़याल) के आधार  पर सृजन हुआ हो, उन सभी परिणामी फल का मालिक, संबंधित सर्जक को माना जाता है । इसीलिए, ऐसे मौलिक सृजन को, संबंधित सर्जक की मिल्कियत मान कर, उस संपत्ति के हितों की रक्षा करने के लिए बनाये गए, कानूनी प्रावधान को,`प्रतिलिपि अधिकार अधिनियम`(कॉपी राइट एक्ट)कहते हैं ।"                           कॉपी राइट एक्ट में, मौलिक सर्जक को, कॉपीराइट मटिरियल्स (सृजन) की कॉपी करने का, सार्वजनिक रूप से वितरित करने का,उसे आंशिक या पूर्ण रूप से नया स्वरूप प्रदान करने का, प्रकाशित करने का, अमल में लाने का, प्रतिनिधित्व करने का, ऐसे विविध कार्य-अधिकार शामिल किए गए हैं ।                         साहित्य रचेता के कॉपी राइट के बारे में ध्यान देने योग्य बात यह है कि, मूल सर्जक के सृजन के साथ, उपर दर्शाए  हुए किसी भी अधिकार का उल्लंघन का मामला ध्यान पर आते ही, ये मामला सार्वजनिक हित के साथ जुड़ा होने के कारण, ऐसी मलिन प्रवृत्

Pradarshankari kala me shodh ki sthiti

             प्रदर्शनकारी कला में शोध की स्थित                         भूमिका                                    किसी भी चीज़ का वर्तमान स्वरूप समझने के लिए उसके इतिहास को जानना आवश्यक है, क्योंकि उस चीज़ का वर्तमान स्वरूप उसकी भूत में छुपा होता है। किसी भी चीज़ के वर्तमान स्थिति का आधार उसका भूतकाल होता है, उस चीज का उद्गम कैसे हुआ और किस प्रकार विकास करके वह वर्तमान स्थिति तक पहुंचा। तब जाकर उस चीज़ की वर्तमान स्वरूप का अध्ययन सही तरीके से किया जा सकता है।                                   किसी भी चीज़ की वर्तमान स्थिति को उसके भूतकाल की स्थिति के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन करके यह जानना है कि भूत की अपेक्षा वर्तमान में वह चीज़ क्या है? उससे उस में कितना बदलाव आया है? क्या अंतर आया है? आदि।                                   उसी प्रकार प्रदर्शनकारी कला में शोध की स्थिति जानने के लिए यह जानना आवश्यक है कि भूतकाल में प्रदर्शनकारी कला में शोध की क्या स्थिति थी या भूत में प्रदर्शनकारी कला का स्वरूप क्या था।                                  उदाहरण के लिए रंगमंच और सिनेमा की बात करें तो पता