Bhaktikal : Hindi kavya ka swarnyug


              भक्तिकाल : हिंदी काव्य का स्वर्णयुग

                                       कुछ विद्वानों का विचार है कि भक्तिकाल हारी हुई जाति की मनोवृत्ति का परिणाम है । पिछले चार पाँच सौ वर्षों से लड़ते -लड़ते भारतीय बहुत निराश हो चुके थे । राजनैतिक दृष्टि से वे परतंत्र हो गए थे और सामाजिक दृष्टि से भी स्वयं को हीन या पतित अनुभव कर रहे थे । देश में एकछत्र राज्य का अभाव था । जनता में भय था । ऐसे निराशा और असहाय वातावरण में ईश्वर की ओर उनकी आस्था का बढ़ना सहज ही था । उन्हें एकमात्र भगवान का सहारा दिखाई दिया ।
                                 डॉ. ग्रियर्सन इसे ईसाइयत की देन मानते हैं । उनके विचार से भारत में भक्ति का प्रारम्भ तब हुआ, जब यहाँ ईसाई आकर बस गए और उन्होंने अपने धर्म का प्रचार आरम्भ कर दिया ।  ग्रियर्सन का यह मत सर्वथा निराधार है, क्योंकि इसाइयों के आगमन से बहुत पहले से ही (वैदिक काल से) इस देश में भक्ति का अस्तित्व रहा है ।
                                 आचार्य शुक्ल के मत से भारत में भक्ति का उदय मुसलमानों की विजय की प्रतिक्रिया में हुआ । उनका कथन है कि इतने भारी राजनीतिक उथल-फेर के पीछे हिंदू जन समुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी सी छाई रही । अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की भक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था ? बाबू गुलाब राय और श्यामसुंदर दास ने भी इसी तरह का विचार दिया  है । किंतु इस मत को भी यथार्थ नहीं कहा जा सकता ।
                                     डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी भक्ति को न तो पराजित मनोवृत्ति का परिणाम मानते हैं और न ही मुस्लिम राज्य की प्रतिष्ठा की प्रतिक्रिया । उनके मत में - "यह बात अत्यंत उपहासास्पद है कि जब मुसलमान लोग उत्तर भारत के मंदिर तोड़ रहे थे, तो उसी समय अपेक्षाकृत निरापद  दक्षिण में भक्त लोगों ने भगवान की शरणागति की प्रार्थना की । मुसलमानों के अत्याचारों से यदि भक्ति की भावधारा को उमड़ना था, तो पहले उसे सिंध में और फिर उत्तर भारत में प्रकट होना चाहिए था, पर हुई दक्षिण में । इसलिए आचार्य द्विवेदी के अनुसार उसे पराजित मनोवृत्ति का परिणाम

कहना असंगत है, क्योंकि मुसलमानों ने तो उत्तरी भारत में हिंदू जाति को पराजित किया जबकि भक्ति की लहर पहले दक्षिण में उठी और फिर सारे भारत में व्याप्त हुई । और यदि यह कहा जाए कि मुसलमान शासकों के बलात् इस्लाम प्रचार से भक्ति का उदय हुआ, तो फिर एशिया तथा यूरोप में भी इस्लाम का प्रचार किया गया था, वहाँ भी भक्ति का उदय होना चाहिए था ।"
                                वास्तव में भक्ति किसी निराशावादी मनोवृत्ति का परिणाम नहीं है । हिंदू जाति अपने जीवन दर्शन के लिए  आरंभ से ही प्रसिद्ध है । इसमें  संघर्षो से जूझने की शक्ति है । इसके साथ ही भक्ति के प्रचारक रामानुज, निम्बार्क, तुलसी, नानक आदि राजनीतिक परिस्थितयों से तटस्थ थे । इन पर यदि तत्कालीन राजनीति का प्रभाव मान लिया जाए तो जायसी, कुतुबन आदि मुसलमानों ने भक्ति का प्रचार क्यों किया ?
                                 भक्तिकाल नि:संदेह हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग है । इस काल का साहित्य अपने पूर्ववर्ती एवं परवर्ती साहित्य से निश्चित रूप उत्कृष्ट है । आदिकाल में कविता वीर और शृंगार रस प्रधान थी । कवि राजाश्रित थे । आश्रयदाता का गुणगान ही उनका लक्ष्य था । जीवन के अन्य क्षेत्रों की ओर उनका ध्यान ही नहीं गया । दूसरे, आदिकालीन साहित्य की प्रामाणिकता संदिग्ध है । भक्तिकाल के उत्तरवर्ती साहित्य में अधिकांश साहित्य अश्लील शृंगार है, जो जीवन की प्रेरणा नहीं । रीतिकालीन कविता स्वान्त: सुखाय अथवा जनहिताय न होकर सामन्त: सुखाय है । इसके विपरीत्त भक्ति साहित्य राजाश्रय से दूर भक्ति की मस्ती में स्वान्त: सुखाय व जनहिताय है । समाज का प्रेरणा स्रोत है । हाँ, आधुनिक काल का साहित्य व्यापकता एवं विविधता की दृष्टि से भक्तिकाल से आगे है । परंतु अनुभूति की गहराई एवं भाव-प्रवणता की दृष्टि से वह भक्ति काल के साहित्य की तुलना में नहीं ठहरता । आधुनिक काल का साहित्य बुद्धिप्रधान है जबकि भक्तिकाल का साहित्य भावप्रधान । ह्रदय बुद्धि पर हावी है ।
                                     हिंदू समाज आदिकाल से ही धर्म प्रधान रहा है । प्रारम्भ में प्रकृति के वरदान - सूर्य, चंद्र, अग्नि आदि शक्तियों को देवता मान कर रहा हो या बाद में विष्णु के अवतारवाद के रूप में । सगुण और निर्गुण , दोनों रूपों में भारतीय जनता

ईश्वरआराधना करती रही है । यह संभव है कि भक्ति कभी ह्तासोन्मुख रही हो, किंतु बीज रूप में वह सदा से विद्यमान रही है ।

                                  बौद्ध, सिद्ध और नाथ संप्रदाय अपने शुष्क प्रचार और जटिल साधना पद्धति की के कारण अपना प्रभाव न छोड़ पाए । शंकराचार्य के अद्वैतवादी दर्शन का संशोधित और परिवर्धित रुप प्रकट हुआ  रामानुजाचार्य, विष्णुस्वामी, वल्भाचार्य, निम्बाकाचार्य और मध्वाचार्य में । वल्भाचार्य के कृष्णभक्ति रूप के विस्तार रूप में राधावल्लभ संप्रदाय, हरिदासी या सखी संप्रदाय तथा चैतन्य या गौड़ीय संप्रदाय चला । उधर स्वामी रामानंद के प्रभाव से भगवान राम की भक्ति का उदय हुआ , जो राम भक्त कवियों के रूप में प्रकट हुआ ।

                                 डॉ. श्याम सुंदर दास के शब्दों में -"जिस युग में कबीर, जायसी, तुलसी , सूर जैसे रससिद्ध कवियों और महात्माओं की दिव्य वाणी उनके अंत:करणों से निकलकर देश के कोने-कोने में फैली थी, उसे साहित्य के इतिहास में सामान्यत: भक्तियुग कहते हैं । निश्चय ही वह हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग था । ......... हिंदी काव्य में से यदि वैष्णव कवियों के काव्य को निकाल दिया जाए, तो जो बचेगा वह इतना हल्का होगा कि हम उस पर किसी प्रकार का गर्व न कर सकेंगे । ...तुलसीदास, सूरदास,नंददास,मीरा,रसखान,हितहरिवंश,कबीर इनमें से किसी पर भी संसार का कोई साहित्य गर्व कर सकता है । हमारे पास ये सब है । ये वैष्णव कवि हिंदी-भारती के कंठमाल हैं । "
                            आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की दृष्टि में - समूचे भारतीय इतिहास में ये अपने ढ़ग का अकेला साहित्य है । इसी का नाम भक्ति साहित्य है । यह एक नई दुनिया है ।
                             भक्तिकाल में चार काव्यधाराएँ - संत काव्यधारा, प्रेम काव्यधारा, कृष्ण काव्यधारा व राम काव्यधारा - एक साथ चलती रही हैं । भगवान के साथ संबंध -

स्थापन, गुरु का महत्व तथा भक्ति की प्रधानता चारों धाराओं की सामान्य प्रवृत्तियाँ हैं । कबीर आदि निर्गुण संतों में रहस्यवाद, भक्ति, खंडन-मंडन एवं सुधार की भावनाएँ हैं । जायसी, मंझन, कुतुबन आदि प्रेम काव्यधारा के संत प्रेम की पीर के कवि हैं । लौकिक प्रेम कथाओं के माध्यम से इन्होंने आध्यात्मिक प्रेम की व्यंजना की । कृष्णभक्त कवियों ने कृष्ण के लोकरंजक रूप को लेकर सख्य एवं माधुर्यभाव से भक्ति की । वात्सल्य और शृंगार रस का चित्रण अपूर्व है । सूर का सूरसागर गीतिकाव्य का श्रेष्ठ उदाहरण है । रामकाव्य अपनी उदार भक्ति-भावना, समन्वयवाद और लोकमंगल की भावना की दृष्टि से उत्कृष्ट है ।

                                          भाव पक्ष व कला पक्ष का अद्भुत समन्वय भक्तिकाल की प्रमुख विशेषता है । कबीर आदि निरक्षर कवियों में भावना एवं अनुभूति की प्रधानता है । फिर भी उनके काव्य में रमणीयता के सभी उपादान हैं । तुलसी,जायसी,सूर और नंददास के काव्य में तो दोनों का अद्-भुत संतुलन है । उनमें ह्रदय की सरस अभिव्यक्ति के साथ सहज वाग्विदग्धता भी है । भाषा, छंद, अलंकार, काव्य-शैलियाँ अर्थात कलापक्ष के सभी उपकरण तथा काव्य के सभी रूप इस साहित्य में हैं । प्रबंध, मुक्तक, गीतिकाव्य,सूक्तिकाव्य, नीतिकाव्य, कथा -काव्य सभी काव्य रूप दर्शनीय हैं ।

                              भक्तिकालीन साहित्य जहां एक ओर भक्तों के ह्रदय की प्यास बुझाता है, वहां काव्य रसिकों को भी रसमग्न करता है । तुलसी के मानस और सूरदास के सूरसागर में भक्तिभाव की गंभीरता, भाषा की सुकुमारता, अनुभूति की तीव्रता तथा रसोद्रेक की पूर्ण क्षमता है।


                                    भक्तिकाल का साहित्य समन्वय की विराट चेष्टा है । यह समन्वय-भावना भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषता है । आधुनिक भारतीय धर्म और संस्कृति तुलसी की देन है । भारतीय-धर्म और संस्कृति की पूर्ण रक्षा इस साहित्य द्वारा हुई है ।

                             आचार्य राम चंद्र शुक्ल के शब्दों में इस काल के कवि भक्त, समाज सुधारक, लोकनायक एवं भविष्य-द्रष्टा थे । जायसी, कबीर और तुलसी के काव्य में समाज को महान संदेश मिलता है । जिसमें लोकमंगल की भावना निहित है ।

                                  रस चित्रण में भक्तिकाव्य अत्यंत उच्च है । तुलसी के नवरसों का सुंदर प्रयोग मानस में किया गया है । सूर ने शृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में अपूर्व सफलता प्राप्त की । कबीर और जायसी का विरह वर्णन अत्यंत उत्कृष्ट है ।

                                    भाषा की दृष्टि से ब्रज और अवधि, दोनों भाषाएँ अत्यंत व्यवस्थित, परिमार्जित,अलंकृत एवं परिनिष्ठित रूप में प्राप्त होती हैं ।

                                       संगीतात्मकता ने इस काल के काव्य में मणिकांचन योग दिया है ।सूर, मीरा,तुलसी,कबीर, नानक,रसखान के पद आज भी सह्रदय कंठों में जीवित हैं ।

                                    वस्तुत: भक्तिकाव्य मर्त्य और अमर्त्य का अनूठा संयोग है , जिसमें ह्रदय,मन और आत्मा की पिपासा शांत करने की शक्ति है । इसमें काव्यत्व, भक्ति,संस्कृति और आध्यात्मिकता का मधुर संगम हैं । यही कारण है कि यह काल हिंदी साहित्य का स्वर्णिम युग कहलाता है ।


                            संदर्भ


1. कक्षा व्याख्यान।                                                :          डॉ. ऋचा द्विवेदी

2. हिंदी साहित्य का इतिहास (आदि एवं मध्य काल)    :     नालंदा खुला विश्वविद्यालय

3. भक्ति काल।                                                    :    गूगल सर्च विकिपीडिया

4. हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग।                                :    blogspot.com

यह लेख पिर्णतः मौलिक नही है। जानकारियों को इकट्ठा करके एक स्थान पर रखा गया है ताकि पाठक को आसानी हो।

Comments

Arts and entertainment

शोध की अर्थ, प्रकृति एवं स्वरूप

समाजकार्य के दर्शन एवं मूल्य

Sanskrit Rangmanch ke Abhinay Siddhant