Pradarshankari kala me shodh ki sthiti
प्रदर्शनकारी कला में शोध की स्थित
भूमिका
किसी भी चीज़ का वर्तमान स्वरूप समझने के लिए उसके इतिहास को जानना आवश्यक है, क्योंकि उस चीज़ का वर्तमान स्वरूप उसकी भूत में छुपा होता है। किसी भी चीज़ के वर्तमान स्थिति का आधार उसका भूतकाल होता है, उस चीज का उद्गम कैसे हुआ और किस प्रकार विकास करके वह वर्तमान स्थिति तक पहुंचा। तब जाकर उस चीज़ की वर्तमान स्वरूप का अध्ययन सही तरीके से किया जा सकता है।
किसी भी चीज़ की वर्तमान स्थिति को उसके भूतकाल की स्थिति के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन करके यह जानना है कि भूत की अपेक्षा वर्तमान में वह चीज़ क्या है? उससे उस में कितना बदलाव आया है? क्या अंतर आया है? आदि।
उसी प्रकार प्रदर्शनकारी कला में शोध की स्थिति जानने के लिए यह जानना आवश्यक है कि भूतकाल में प्रदर्शनकारी कला में शोध की क्या स्थिति थी या भूत में प्रदर्शनकारी कला का स्वरूप क्या था।
उदाहरण के लिए रंगमंच और सिनेमा की बात करें तो पता चलता है कि रंगमंच का इतिहास काफी पुराना है, किंतु सिनेमा का इतिहास सौ साल का है, किंतु जिस गति से रंगमंच का विकास हुआ उसके चार गुना ज्यादा गति से सिनेमा ने विकास किया। जहां सौ साल पहले सिनेमा पर शोध करने के लिए बहुत ही कम टॉपिक उपलब्ध थे, वहीं वर्तमान में अनगिनत हैं क्योंकि सौ साल पहले सिनेमा की शुरुआत हो रही थी और वर्तमान में सिनेमा विकसित है। रंगमंच की बात करें तो सौ साल पहले भी रंगमंच पर शोध करने के लिए काफी विषय थे और आज भी क्योंकि वर्तमान में रंगमंच में नए-नए आयाम आ गए हैं जिस कारण इतिहास और वर्तमान को मिलाकर शोध की स्थिति काफी बनती है।
वर्तमान में किसी भी चीज़ में शोध के लिए उत्पन्न समस्या के मुख्य चार कारक है :-
पहला उपनिवेशवाद
दूसरा आधुनिकतावाद
तीसरा वैश्वीकरण
चौथा न्यू वेब मीडिया एवं तकनीक
प्रदर्शनकारी कला में शोध की स्थिति समझने के लिए उपरोक्त वर्णित चारों के संदर्भ में वर्तमान में प्रदर्शनकारी कला, रंगमंच, सिनेमा क्या है यह समझना होगा, जानना होगा ।
उपनिवेशवाद की दृष्टि से देखने पर यह पता चलता है कि उस समय प्रिंट मीडिया, रंगमंच, गीत - संगीत आदि के माध्यम से राष्ट्रीयकरण का प्रयास चल रहा था। अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़, सत्ता के विरुद्ध विद्रोह हो रहा था
आधुनिकतावाद के संदर्भ में मीडिया, सिनेमा, रंगमंच में आधुनिकता उपनिवेशवाद के बाद दिखाई देता है क्योंकि उस समय देश तुरंत आज़ाद हुआ था। इस कारण सिनेमा, रंगमंच में थीम्स ऐसे थे जिसमे लोगों की समस्या दिखाई देती थी। लोगों की आकांक्षाएं बढ़ रही थी कि और चाहिए, और विकास, और नया, और भौतिक सुख, और सांसारिक सुख आदि । जिसे सिनेमा तथा रंगमंच के माध्यम से दिखाया गया क्योंकि सिनेमा तथा रंगमंच केवल मनोरंजन न होकर ज़िन्दगी है।
सिनेमा ज़िन्दगी से ग्रहण करती है तथा जिंदगी सिनेमा से।
वैश्वीकरण के संदर्भ में हर क्षेत्र में एक फ्यूज़न भर कर आया। फ्यूज़न पाश्चात्य था भारतीय आइडिया का, दो या दो से अधिक देशों के सांस्कृतिक पहलुओं का, तकनीक का। वैश्वीकरण के कारण आज भारतीय जीन्स, शर्ट पहनते हैं तथा अमेरिकी साड़ी। वैश्वीकरण के कारण ही दुनिया के दूरदराज के रंगमंच और सिनेमा की जानकारी ले पाते हैं तथा उसका आनंद उठा पाते हैं । अलग-अलग देशों के रंगमंच तथा सिनेमा के आइडिया तथा डिज़ाइन का मिश्रण एक ही जगह देखने को मिल जाता है।
न्यू मीडिया एवं तकनीकि के संदर्भ में बात करें तो हम कह सकते हैं कि हम डेटा - डेमोक्रेसी युग में जी रहे हैं। न्यू मीडिया तथा तकनीक के कारण यूट्यूब, फेसबुक, व्हाट्सएप, टि्वटर, इंस्टाग्राम आदि का विकास हुआ। जिसके कारण हर एक सिंगल व्यक्ति की अभिव्यक्ति तथा सूचनाएं दुनिया के कोने कोने में पहुंच रही है। न्यू मीडिया ने यूट्यूब के सहारे थिएटर तथा कला को लोगों की लिविंग रूम तक पहुंचा दिया है। उदाहरण के लिए टाटा स्काई का चैनल नंबर 316 एवं 315 टाटा स्काई थिएटर । जिस पर रंगमंच में प्रदर्शित नाटकों को रिकॉर्ड कर दिखाया जाता है।
प्रदर्शनकारी कला में शोध की स्थिति
प्रदर्शनकारी कला में शोध की स्थिति जानने के लिए ऊपर वर्णित चारों कारक यथा उपनिवेशवाद, आधुनिकतावाद, वैश्वीकरण तथा न्यू वेब मीडिया एवं तकनीकी से होकर गुज़रना होगा। यह जानना होगा कि इस दौरान रंगमंच तथा सिनेमा कैसा था? तथा इसमे क्या बदलाव एवं विकास हुआ। इस बदलाव से उत्पन्न सवालों के समाधान अथवा जवाब ढूंढने की आवश्यकता है जिससे हमें शोध की स्थिति ज्ञात होगी।
1. उपनिवेशवाद (कॉलोनियलिज़्म)
अंग्रेज़ों के द्वारा उपनिवेशवाद की स्थापना से पहले भारत में मेन स्ट्रीम थियेटर ना के बराबर था, थियेटर लोक कला के रूप में प्रचलन में था। जब अंग्रेज़ों ने भारत में अपने यहां के थिएटर की स्थापना की तब उसके प्रभाव से पारसी थियेटर का जन्म हुआ जिसके विरोध में खड़ी - बोली हिंदी में नाटक प्रारंभ हुआ जो अंग्रेज़ी शासन के ख़िलाफ़ कार्य कर रही थी तथा सत्ता से विद्रोह कर एक आंदोलन के रूप में विकसित हुआ। इस दौरान भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के नाटककारों ने नाटकों की रचना की तथा उनका प्रदर्शन किया। कॉलोनियलिज़्म के कैननाइज़ेशन के द्वारा देखने पर कहा गया कि नाटक सत्ता विरोधी है तथा राजनीति कर रहा है, जनता को भड़का रहा है तथा अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध काम कर रहा है। इसे रोकने के लिए ड्रामैटिक एक्ट लागू किया गया। उस समय भारतीय के द्वारा किया गया नाटक अंग्रेज़ों के नज़रिये से गलत था। उस समय रिसर्च पेपर तथा आर्टिकल्स जो अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुए भारतीय रंगमंच को गलत तथा बुरा साबित कर रहा था। किंतु देश की आज़ादी के बाद भारतीय दृष्टि से इस पर शोध किया गया तब यह सामने आया कि उस समय का नाटक, रंगमंच भारतीय हित में था तथा वह सब एक आंदोलन था जो भारत की आज़ादी तथा संपूर्ण स्वराज की बात करता था। उपनिवेशवाद के समय घटी घटना वर्तमान में रंगमंच में जिज्ञासा उत्पन्न करती है, जो शोध के लिए कई विचार तथा प्रश्न छोड़ जाती है।
बात करें सिनेमा की तो सिनेमा की शुरुआत ही उपनिवेश काल के अंतिम दौर में हुआ। जिस कारण सिनेमा अपने विकास के क्रम में था तथा उसमे बहुत ज्यादा कार्य नहीं हुए। किंतु उसके बाद सिनेमा काफी तेजी से विकसित हुआ और कई बदलावों से होकर गुज़रा।
2. आधुनिकतावाद ( मोडरनिज़्म)
सिनेमा तथा रंगमंच में आधुनिकता उपनिवेशवाद के बाद ही दिखाई देता है। उपनिवेशवाद की समाप्ति के पश्चात भारत आजाद हो चुका था तथा उस समय लोगों की इच्छाएं, आकांक्षाएं काफी तेजी से बढ़ रही थी। देश अपने विकास की ओर देख रहा था। ऐसे में सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक समस्याएं उभर कर सामने आई जिसका प्रदर्शन सिनेमा तथा रंगमंच के माध्यम से किया गया जो समाज तथा सरकार को उन समस्याओं से रूबरू कराई। जिससे उनका समाधान किया गया। चूंकि सिनेमा सूचनाओं को बड़ी जनसंख्या तक आसानी से तथा एक साथ पहुंचा पता है इस कारण इन समस्याओं को सिनेमा के माध्यम से ज्यादा पहुंचाया गया तथा सिनेमा तेजी से विकास करता गया।
गरीबी, अशिक्षा, भुखमरी, आर्थिक तंगी, छुआछूत, जातिवाद, नफरत, घरेलू हिंसा, महिला उत्पीड़न आदि से देश जूझ रहा था, इस कारण इन सभी समस्याओं पर फिल्में बनी तथा रंगमंच हुए। इतने बदलाव के साथ सिनेमा तथा रंगमंच में कार्य हुए जो प्रदर्शनकारी कला में शोध के लिए संभावनाओं के द्वार खोल दिए। जिस पर कई शोध हुए और वर्तमान में शोध हो भी रहे हैं।
3. वैश्वीकरण ( ग्लोबलाइजेशन )
आधुनिकतावाद से आगे बढ़कर वैश्वीकरण का दौर आया। तब आर्ट, कल्चर, टेक्नोलॉजी, पॉलीटिकल आइडिया का बहाव होने लगा। आधुनिकतावाद में जहां अपने को आधुनिक बनाने की बात चल रही थी वहीं वैश्वीकरण के दौर में अपने आप को दुनिया के दौड़ में शामिल करने की होड़ मच गई । हर देश अपने को दुनिया की नजरों में बेहतर साबित करने लगा। दुनिया की नजरों में ऊपर उठने की चाह रखने लगा । सांस्कृतिक, तकनीकि, राजनीति के दौड़ में दूसरे देशों को पछाड़ कर आगे निकलने की होड़ लग गई। जिसके परिणाम स्वरूप नई - नई तकनीक का विकास होने लगा। सांस्कृतिक पक्ष को मजबूत किया जाने लगा, नए - नए राजनीतिक आइडिया इजात किये जाने लगे। चारों तरफ आइडिया का बहाव होने लगा। इन आइडिया को सिनेमा तथा रंगमंच में उतारा जाने लगा। दो देशों की संस्कृतियों का मिश्रण होने लगा जिससे एक फ्यूज़न उत्पन्न हुआ। वैश्वीकरण के कारण दुनिया के अलग - अलग हिस्से आपस में जुड़ गए। इन आइडिया पर बनी फ़िल्मों के कारण फिल्मों में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए तथा रंगमंच में नई तकनीकों का प्रयोग होने लगा। इन प्रयोगों ने सिनेमा तथा रंगमंच में शोध के लिए अनगिनत विषय उपलब्ध करा दिए जिस पर लगातार, बहुत ही तेजी से शोध हो रहे हैं तथा प्रदर्शनकारी कला में नये नए ज्ञान का सृजन हो रहा है।
4. न्यू वेब मीडिया एवं तकनीक
वैश्वीकरण का ही परिणाम है न्यू वेब मीडिया का आविष्कार जिसने सिनेमा तथा रंगमंच को लोगों की बेडरूम तक पहुंचा दिया। जहां सिनेमा तथा रंगमंच देखने के लिए दर्शकों को हॉल तक जाना पड़ता था वहीं न्यू वेब मीडिया के कारण यह सब उनकी लिविंग रूम पर पहुंच गया वह भी बहुत आसानी से। इसमे सबसे बड़ा योगदान यूट्यूब का है , जहां रंगमंचीय प्रस्तुति को रिकॉर्ड कर अपलोड कर दिया जाता है जो देश के कोने - कोने में बैठ दर्शकों तक पहुंच जाता है। यूट्यूब के कारण शॉर्ट फिल्मों का प्रचलन काफी बढ़ गया है। जिसके पास बजट कम है वह भी अपनी फ़िल्म बना कर रिलीज़ कर पाता है। केवल रिलीज़ ही नहीं आर्थिक रूप से कमाई भी कर पाता है । रंगमंच तथा सिनेमा के कलाकारों के लिए आर्थिक रूप से विकसित हुआ है यूट्यूब। न्यू वेब मीडिया ने वन मैन आर्मी को जन्म दिया। जहां एक ही व्यक्ति एक्टर, डायरेक्टर, एडिटर, तथा अन्य तकनीकी कार्य खुद करके अपनी कला को प्रदर्शित कर सकता है। बस टैलेंट की आवश्यकता है।
इसका सटीक उदाहरण उदाहरण है "बी.वी के वाइन" तथा कनपुरिया जोक ( make joke of ) थोड़ा सा टैलेंट और नाम तथा पैसे भरपूर। यह सब सार्थक हुआ यूट्यूब की वजह से।
फेसबुक, ट्वीटर, वाट्सएप्प, इंस्टाग्राम आदि से दुनिया बहुत छोटी हो गई। कोई भी सूचना दुनिया के इस कोने से दूसरे कोने तक मिनटों में पहुंच जाती है। सिनेमा तथा रंगमंच की खबरें भी लोगों तक पहुंच जाती है। जिससे सिनेमा तथा थिएटर में काफी तेजी से विकास हुआ है और रोज नए-नए संभावनाओं को जन्म दे रहा है।
समय बदलने के साथ-साथ दुनिया की सोच भी बदल रही है। अपने भारत के लोगों की सोच भी बदल रही है। जहां पहले समलैंगिकता पर बात करना अवैध था वही अब समलैंगिकता को वैध करार दे दिया गया है ।
उदाहरण के लिए पहले "फ़ायर" जैसी फिल्मों पर बहुत बड़ा बवाल हो जाता था वहीं अब ऐसी फिल्में को प्रदर्शित करने की अनुमति आसानी से मिल सकती है क्योंकि अब धारा 377 हटा दिया गया है। इन बदलावों के कारण आई सिनेमा तथा रंगमंच में बदलाव प्रदर्शनकारी कला में शोध संभावनाओं को बृहत्त रूप प्रदान करती है।
सिनेमा, रंगमंच, टीवी सीरियल, आदि के बीच का अंतर धीरे - धीरे कम होता जा रहा है, जो सार्वभौमिकता की ओर बढ़ रहा है। कंटेंपरेरी सिनेमा तथा रंगमंच को कंटेंपरेरी समाज के अनुसार देखना चाहिए। समाज से सिनेमा बनता है तथा सिनेमा से समाज। सिनेमा तथा रंगमंच के माध्यम से इतिहास का प्रदर्शन होता है तथा इतिहास का निर्माण भी। गाज़ी तथा मुल्क राष्ट्रवादी मुद्दों पर बनी फिल्मों का उदाहरण है तो गंगाजल बिहार के समस्याओं पर बनी फिल्म का। कहने का तात्पर्य यह है कि सामाजिक जीवन के आधार पर फिल्म बनती है तथा फिल्मों के आधार पर विकास होता है तथा समाज बनता है जो शोध के लिए संभावनाएं उत्पन्न करते हैं।
वर्तमान में me too, जेंडर, राष्ट्रवाद का मुद्दा काफी गर्म है। जिस पर आगे रंगमंचीय तथा सिनेमाई प्रदर्शन संभव है। ऐसे अपकमिंग मुद्दों तथा प्रदर्शनों पर भी शोध की संभावना बनती है।
वर्तमान में वर्चुअल वर्ल्ड तथा रीयल वर्ल्ड को मिक्स करने की कोशिश की जा रही है। जिसके लिए नए नए अविष्कार किए जा रहे हैं। रोबोट, नैनो रोबोट, माइक्रो रोबोट विकसित कीये जा रहे हैं। वीडियो गेम को ज्यादा से ज्यादा रियल बनाने के लिए नए - नए प्रयोग किए जा रहे हैं। ऐसे में फिल्म "रोबोट" तथा "रा - वन" आने वाले समय में तकनीकी संभावनाओं को दर्शाता है। जो शोध का एक बड़ा विषय है।
डायस्पोरा रिसर्च के कारण ही "दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे" जैसी फ़िल्म का निर्माण संभव हो सका। जहां अनिल कपूर अभिनीत फिल्म बेटा में फॉरेन रिटर्न लड़कियों को असभ्य दिखाया गया है वहीं डीडीएलजे में विदेश में रहने वाले परिवारों के लड़कियों को भारत मे रहने वाली लड़कियों के जितना ही सभ्य दिखाया गया है। विदेश में बसे परिवारों की मनः स्थिति, संस्कार तथा उनका राष्ट्रप्रेम भी इस फ़िल्म में दिखाया गया है। यह सब संभव हो सका शोध के कारण ही। अतः फिल्मो तथा रंगमंच पर पहले भी काफी शोध हुए हैं तथा आगे शोध करने के लिए अनेकों संभावनाएं हैं।
अंत मे एक उदाहरण देना चाहूंगा 1975 में बनी फिल्म "जय संतोषी मां" जिससे भारत मे संतोषी माँ का कल्ट आया। एंथ्रोपोलॉजिस्ट विणा दास इस फ़िल्म पर शोध करने के पश्चात यह पाती हैं कि उस समय की जनता में काफी असंतोष फैल रहा था, क्योंकि आकांक्षाएं बढ़ रही थी किंतु पूर्ति कम थी। ऐसे में जय संतोषी मां के रिलीज होने से जनता में असंतोष पैदा हुआ तथा जितना है उतने में संतोष करने का ज्ञान विकसित हुआ। जबकि वेदों पुराणों में संतोषी माता का कहीं जिक्र तक नहीं पाया जाता है। अतः सिनेमा जीवन को प्रभावित करती है साथ ही साथ एक नए इतिहास को गढ़ने का भी काम करती ।है जिस पर कई शोध हुए हैं तथा आगे सोच के लिए कई संभावनाएं हैं।
संदर्भ
1. कक्षा व्याख्यान : डॉ. विधु खरे दास।
2. कक्षा व्याख्यान। : डॉ. प्रशांत खत्री।
3. सिनेमा के सौ साल : गूगल सर्च।
4. रंग मंच में बदलाव। : गूगल सर्च।
5. कला पर तकनीक का प्रभाव। : गूगल सर्च।
भूमिका
किसी भी चीज़ का वर्तमान स्वरूप समझने के लिए उसके इतिहास को जानना आवश्यक है, क्योंकि उस चीज़ का वर्तमान स्वरूप उसकी भूत में छुपा होता है। किसी भी चीज़ के वर्तमान स्थिति का आधार उसका भूतकाल होता है, उस चीज का उद्गम कैसे हुआ और किस प्रकार विकास करके वह वर्तमान स्थिति तक पहुंचा। तब जाकर उस चीज़ की वर्तमान स्वरूप का अध्ययन सही तरीके से किया जा सकता है।
किसी भी चीज़ की वर्तमान स्थिति को उसके भूतकाल की स्थिति के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन करके यह जानना है कि भूत की अपेक्षा वर्तमान में वह चीज़ क्या है? उससे उस में कितना बदलाव आया है? क्या अंतर आया है? आदि।
उसी प्रकार प्रदर्शनकारी कला में शोध की स्थिति जानने के लिए यह जानना आवश्यक है कि भूतकाल में प्रदर्शनकारी कला में शोध की क्या स्थिति थी या भूत में प्रदर्शनकारी कला का स्वरूप क्या था।
उदाहरण के लिए रंगमंच और सिनेमा की बात करें तो पता चलता है कि रंगमंच का इतिहास काफी पुराना है, किंतु सिनेमा का इतिहास सौ साल का है, किंतु जिस गति से रंगमंच का विकास हुआ उसके चार गुना ज्यादा गति से सिनेमा ने विकास किया। जहां सौ साल पहले सिनेमा पर शोध करने के लिए बहुत ही कम टॉपिक उपलब्ध थे, वहीं वर्तमान में अनगिनत हैं क्योंकि सौ साल पहले सिनेमा की शुरुआत हो रही थी और वर्तमान में सिनेमा विकसित है। रंगमंच की बात करें तो सौ साल पहले भी रंगमंच पर शोध करने के लिए काफी विषय थे और आज भी क्योंकि वर्तमान में रंगमंच में नए-नए आयाम आ गए हैं जिस कारण इतिहास और वर्तमान को मिलाकर शोध की स्थिति काफी बनती है।
वर्तमान में किसी भी चीज़ में शोध के लिए उत्पन्न समस्या के मुख्य चार कारक है :-
पहला उपनिवेशवाद
दूसरा आधुनिकतावाद
तीसरा वैश्वीकरण
चौथा न्यू वेब मीडिया एवं तकनीक
प्रदर्शनकारी कला में शोध की स्थिति समझने के लिए उपरोक्त वर्णित चारों के संदर्भ में वर्तमान में प्रदर्शनकारी कला, रंगमंच, सिनेमा क्या है यह समझना होगा, जानना होगा ।
उपनिवेशवाद की दृष्टि से देखने पर यह पता चलता है कि उस समय प्रिंट मीडिया, रंगमंच, गीत - संगीत आदि के माध्यम से राष्ट्रीयकरण का प्रयास चल रहा था। अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़, सत्ता के विरुद्ध विद्रोह हो रहा था
आधुनिकतावाद के संदर्भ में मीडिया, सिनेमा, रंगमंच में आधुनिकता उपनिवेशवाद के बाद दिखाई देता है क्योंकि उस समय देश तुरंत आज़ाद हुआ था। इस कारण सिनेमा, रंगमंच में थीम्स ऐसे थे जिसमे लोगों की समस्या दिखाई देती थी। लोगों की आकांक्षाएं बढ़ रही थी कि और चाहिए, और विकास, और नया, और भौतिक सुख, और सांसारिक सुख आदि । जिसे सिनेमा तथा रंगमंच के माध्यम से दिखाया गया क्योंकि सिनेमा तथा रंगमंच केवल मनोरंजन न होकर ज़िन्दगी है।
सिनेमा ज़िन्दगी से ग्रहण करती है तथा जिंदगी सिनेमा से।
वैश्वीकरण के संदर्भ में हर क्षेत्र में एक फ्यूज़न भर कर आया। फ्यूज़न पाश्चात्य था भारतीय आइडिया का, दो या दो से अधिक देशों के सांस्कृतिक पहलुओं का, तकनीक का। वैश्वीकरण के कारण आज भारतीय जीन्स, शर्ट पहनते हैं तथा अमेरिकी साड़ी। वैश्वीकरण के कारण ही दुनिया के दूरदराज के रंगमंच और सिनेमा की जानकारी ले पाते हैं तथा उसका आनंद उठा पाते हैं । अलग-अलग देशों के रंगमंच तथा सिनेमा के आइडिया तथा डिज़ाइन का मिश्रण एक ही जगह देखने को मिल जाता है।
न्यू मीडिया एवं तकनीकि के संदर्भ में बात करें तो हम कह सकते हैं कि हम डेटा - डेमोक्रेसी युग में जी रहे हैं। न्यू मीडिया तथा तकनीक के कारण यूट्यूब, फेसबुक, व्हाट्सएप, टि्वटर, इंस्टाग्राम आदि का विकास हुआ। जिसके कारण हर एक सिंगल व्यक्ति की अभिव्यक्ति तथा सूचनाएं दुनिया के कोने कोने में पहुंच रही है। न्यू मीडिया ने यूट्यूब के सहारे थिएटर तथा कला को लोगों की लिविंग रूम तक पहुंचा दिया है। उदाहरण के लिए टाटा स्काई का चैनल नंबर 316 एवं 315 टाटा स्काई थिएटर । जिस पर रंगमंच में प्रदर्शित नाटकों को रिकॉर्ड कर दिखाया जाता है।
प्रदर्शनकारी कला में शोध की स्थिति
प्रदर्शनकारी कला में शोध की स्थिति जानने के लिए ऊपर वर्णित चारों कारक यथा उपनिवेशवाद, आधुनिकतावाद, वैश्वीकरण तथा न्यू वेब मीडिया एवं तकनीकी से होकर गुज़रना होगा। यह जानना होगा कि इस दौरान रंगमंच तथा सिनेमा कैसा था? तथा इसमे क्या बदलाव एवं विकास हुआ। इस बदलाव से उत्पन्न सवालों के समाधान अथवा जवाब ढूंढने की आवश्यकता है जिससे हमें शोध की स्थिति ज्ञात होगी।
1. उपनिवेशवाद (कॉलोनियलिज़्म)
अंग्रेज़ों के द्वारा उपनिवेशवाद की स्थापना से पहले भारत में मेन स्ट्रीम थियेटर ना के बराबर था, थियेटर लोक कला के रूप में प्रचलन में था। जब अंग्रेज़ों ने भारत में अपने यहां के थिएटर की स्थापना की तब उसके प्रभाव से पारसी थियेटर का जन्म हुआ जिसके विरोध में खड़ी - बोली हिंदी में नाटक प्रारंभ हुआ जो अंग्रेज़ी शासन के ख़िलाफ़ कार्य कर रही थी तथा सत्ता से विद्रोह कर एक आंदोलन के रूप में विकसित हुआ। इस दौरान भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के नाटककारों ने नाटकों की रचना की तथा उनका प्रदर्शन किया। कॉलोनियलिज़्म के कैननाइज़ेशन के द्वारा देखने पर कहा गया कि नाटक सत्ता विरोधी है तथा राजनीति कर रहा है, जनता को भड़का रहा है तथा अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध काम कर रहा है। इसे रोकने के लिए ड्रामैटिक एक्ट लागू किया गया। उस समय भारतीय के द्वारा किया गया नाटक अंग्रेज़ों के नज़रिये से गलत था। उस समय रिसर्च पेपर तथा आर्टिकल्स जो अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुए भारतीय रंगमंच को गलत तथा बुरा साबित कर रहा था। किंतु देश की आज़ादी के बाद भारतीय दृष्टि से इस पर शोध किया गया तब यह सामने आया कि उस समय का नाटक, रंगमंच भारतीय हित में था तथा वह सब एक आंदोलन था जो भारत की आज़ादी तथा संपूर्ण स्वराज की बात करता था। उपनिवेशवाद के समय घटी घटना वर्तमान में रंगमंच में जिज्ञासा उत्पन्न करती है, जो शोध के लिए कई विचार तथा प्रश्न छोड़ जाती है।
बात करें सिनेमा की तो सिनेमा की शुरुआत ही उपनिवेश काल के अंतिम दौर में हुआ। जिस कारण सिनेमा अपने विकास के क्रम में था तथा उसमे बहुत ज्यादा कार्य नहीं हुए। किंतु उसके बाद सिनेमा काफी तेजी से विकसित हुआ और कई बदलावों से होकर गुज़रा।
2. आधुनिकतावाद ( मोडरनिज़्म)
सिनेमा तथा रंगमंच में आधुनिकता उपनिवेशवाद के बाद ही दिखाई देता है। उपनिवेशवाद की समाप्ति के पश्चात भारत आजाद हो चुका था तथा उस समय लोगों की इच्छाएं, आकांक्षाएं काफी तेजी से बढ़ रही थी। देश अपने विकास की ओर देख रहा था। ऐसे में सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक समस्याएं उभर कर सामने आई जिसका प्रदर्शन सिनेमा तथा रंगमंच के माध्यम से किया गया जो समाज तथा सरकार को उन समस्याओं से रूबरू कराई। जिससे उनका समाधान किया गया। चूंकि सिनेमा सूचनाओं को बड़ी जनसंख्या तक आसानी से तथा एक साथ पहुंचा पता है इस कारण इन समस्याओं को सिनेमा के माध्यम से ज्यादा पहुंचाया गया तथा सिनेमा तेजी से विकास करता गया।
गरीबी, अशिक्षा, भुखमरी, आर्थिक तंगी, छुआछूत, जातिवाद, नफरत, घरेलू हिंसा, महिला उत्पीड़न आदि से देश जूझ रहा था, इस कारण इन सभी समस्याओं पर फिल्में बनी तथा रंगमंच हुए। इतने बदलाव के साथ सिनेमा तथा रंगमंच में कार्य हुए जो प्रदर्शनकारी कला में शोध के लिए संभावनाओं के द्वार खोल दिए। जिस पर कई शोध हुए और वर्तमान में शोध हो भी रहे हैं।
3. वैश्वीकरण ( ग्लोबलाइजेशन )
आधुनिकतावाद से आगे बढ़कर वैश्वीकरण का दौर आया। तब आर्ट, कल्चर, टेक्नोलॉजी, पॉलीटिकल आइडिया का बहाव होने लगा। आधुनिकतावाद में जहां अपने को आधुनिक बनाने की बात चल रही थी वहीं वैश्वीकरण के दौर में अपने आप को दुनिया के दौड़ में शामिल करने की होड़ मच गई । हर देश अपने को दुनिया की नजरों में बेहतर साबित करने लगा। दुनिया की नजरों में ऊपर उठने की चाह रखने लगा । सांस्कृतिक, तकनीकि, राजनीति के दौड़ में दूसरे देशों को पछाड़ कर आगे निकलने की होड़ लग गई। जिसके परिणाम स्वरूप नई - नई तकनीक का विकास होने लगा। सांस्कृतिक पक्ष को मजबूत किया जाने लगा, नए - नए राजनीतिक आइडिया इजात किये जाने लगे। चारों तरफ आइडिया का बहाव होने लगा। इन आइडिया को सिनेमा तथा रंगमंच में उतारा जाने लगा। दो देशों की संस्कृतियों का मिश्रण होने लगा जिससे एक फ्यूज़न उत्पन्न हुआ। वैश्वीकरण के कारण दुनिया के अलग - अलग हिस्से आपस में जुड़ गए। इन आइडिया पर बनी फ़िल्मों के कारण फिल्मों में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए तथा रंगमंच में नई तकनीकों का प्रयोग होने लगा। इन प्रयोगों ने सिनेमा तथा रंगमंच में शोध के लिए अनगिनत विषय उपलब्ध करा दिए जिस पर लगातार, बहुत ही तेजी से शोध हो रहे हैं तथा प्रदर्शनकारी कला में नये नए ज्ञान का सृजन हो रहा है।
4. न्यू वेब मीडिया एवं तकनीक
वैश्वीकरण का ही परिणाम है न्यू वेब मीडिया का आविष्कार जिसने सिनेमा तथा रंगमंच को लोगों की बेडरूम तक पहुंचा दिया। जहां सिनेमा तथा रंगमंच देखने के लिए दर्शकों को हॉल तक जाना पड़ता था वहीं न्यू वेब मीडिया के कारण यह सब उनकी लिविंग रूम पर पहुंच गया वह भी बहुत आसानी से। इसमे सबसे बड़ा योगदान यूट्यूब का है , जहां रंगमंचीय प्रस्तुति को रिकॉर्ड कर अपलोड कर दिया जाता है जो देश के कोने - कोने में बैठ दर्शकों तक पहुंच जाता है। यूट्यूब के कारण शॉर्ट फिल्मों का प्रचलन काफी बढ़ गया है। जिसके पास बजट कम है वह भी अपनी फ़िल्म बना कर रिलीज़ कर पाता है। केवल रिलीज़ ही नहीं आर्थिक रूप से कमाई भी कर पाता है । रंगमंच तथा सिनेमा के कलाकारों के लिए आर्थिक रूप से विकसित हुआ है यूट्यूब। न्यू वेब मीडिया ने वन मैन आर्मी को जन्म दिया। जहां एक ही व्यक्ति एक्टर, डायरेक्टर, एडिटर, तथा अन्य तकनीकी कार्य खुद करके अपनी कला को प्रदर्शित कर सकता है। बस टैलेंट की आवश्यकता है।
इसका सटीक उदाहरण उदाहरण है "बी.वी के वाइन" तथा कनपुरिया जोक ( make joke of ) थोड़ा सा टैलेंट और नाम तथा पैसे भरपूर। यह सब सार्थक हुआ यूट्यूब की वजह से।
फेसबुक, ट्वीटर, वाट्सएप्प, इंस्टाग्राम आदि से दुनिया बहुत छोटी हो गई। कोई भी सूचना दुनिया के इस कोने से दूसरे कोने तक मिनटों में पहुंच जाती है। सिनेमा तथा रंगमंच की खबरें भी लोगों तक पहुंच जाती है। जिससे सिनेमा तथा थिएटर में काफी तेजी से विकास हुआ है और रोज नए-नए संभावनाओं को जन्म दे रहा है।
समय बदलने के साथ-साथ दुनिया की सोच भी बदल रही है। अपने भारत के लोगों की सोच भी बदल रही है। जहां पहले समलैंगिकता पर बात करना अवैध था वही अब समलैंगिकता को वैध करार दे दिया गया है ।
उदाहरण के लिए पहले "फ़ायर" जैसी फिल्मों पर बहुत बड़ा बवाल हो जाता था वहीं अब ऐसी फिल्में को प्रदर्शित करने की अनुमति आसानी से मिल सकती है क्योंकि अब धारा 377 हटा दिया गया है। इन बदलावों के कारण आई सिनेमा तथा रंगमंच में बदलाव प्रदर्शनकारी कला में शोध संभावनाओं को बृहत्त रूप प्रदान करती है।
सिनेमा, रंगमंच, टीवी सीरियल, आदि के बीच का अंतर धीरे - धीरे कम होता जा रहा है, जो सार्वभौमिकता की ओर बढ़ रहा है। कंटेंपरेरी सिनेमा तथा रंगमंच को कंटेंपरेरी समाज के अनुसार देखना चाहिए। समाज से सिनेमा बनता है तथा सिनेमा से समाज। सिनेमा तथा रंगमंच के माध्यम से इतिहास का प्रदर्शन होता है तथा इतिहास का निर्माण भी। गाज़ी तथा मुल्क राष्ट्रवादी मुद्दों पर बनी फिल्मों का उदाहरण है तो गंगाजल बिहार के समस्याओं पर बनी फिल्म का। कहने का तात्पर्य यह है कि सामाजिक जीवन के आधार पर फिल्म बनती है तथा फिल्मों के आधार पर विकास होता है तथा समाज बनता है जो शोध के लिए संभावनाएं उत्पन्न करते हैं।
वर्तमान में me too, जेंडर, राष्ट्रवाद का मुद्दा काफी गर्म है। जिस पर आगे रंगमंचीय तथा सिनेमाई प्रदर्शन संभव है। ऐसे अपकमिंग मुद्दों तथा प्रदर्शनों पर भी शोध की संभावना बनती है।
वर्तमान में वर्चुअल वर्ल्ड तथा रीयल वर्ल्ड को मिक्स करने की कोशिश की जा रही है। जिसके लिए नए नए अविष्कार किए जा रहे हैं। रोबोट, नैनो रोबोट, माइक्रो रोबोट विकसित कीये जा रहे हैं। वीडियो गेम को ज्यादा से ज्यादा रियल बनाने के लिए नए - नए प्रयोग किए जा रहे हैं। ऐसे में फिल्म "रोबोट" तथा "रा - वन" आने वाले समय में तकनीकी संभावनाओं को दर्शाता है। जो शोध का एक बड़ा विषय है।
डायस्पोरा रिसर्च के कारण ही "दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे" जैसी फ़िल्म का निर्माण संभव हो सका। जहां अनिल कपूर अभिनीत फिल्म बेटा में फॉरेन रिटर्न लड़कियों को असभ्य दिखाया गया है वहीं डीडीएलजे में विदेश में रहने वाले परिवारों के लड़कियों को भारत मे रहने वाली लड़कियों के जितना ही सभ्य दिखाया गया है। विदेश में बसे परिवारों की मनः स्थिति, संस्कार तथा उनका राष्ट्रप्रेम भी इस फ़िल्म में दिखाया गया है। यह सब संभव हो सका शोध के कारण ही। अतः फिल्मो तथा रंगमंच पर पहले भी काफी शोध हुए हैं तथा आगे शोध करने के लिए अनेकों संभावनाएं हैं।
अंत मे एक उदाहरण देना चाहूंगा 1975 में बनी फिल्म "जय संतोषी मां" जिससे भारत मे संतोषी माँ का कल्ट आया। एंथ्रोपोलॉजिस्ट विणा दास इस फ़िल्म पर शोध करने के पश्चात यह पाती हैं कि उस समय की जनता में काफी असंतोष फैल रहा था, क्योंकि आकांक्षाएं बढ़ रही थी किंतु पूर्ति कम थी। ऐसे में जय संतोषी मां के रिलीज होने से जनता में असंतोष पैदा हुआ तथा जितना है उतने में संतोष करने का ज्ञान विकसित हुआ। जबकि वेदों पुराणों में संतोषी माता का कहीं जिक्र तक नहीं पाया जाता है। अतः सिनेमा जीवन को प्रभावित करती है साथ ही साथ एक नए इतिहास को गढ़ने का भी काम करती ।है जिस पर कई शोध हुए हैं तथा आगे सोच के लिए कई संभावनाएं हैं।
संदर्भ
1. कक्षा व्याख्यान : डॉ. विधु खरे दास।
2. कक्षा व्याख्यान। : डॉ. प्रशांत खत्री।
3. सिनेमा के सौ साल : गूगल सर्च।
4. रंग मंच में बदलाव। : गूगल सर्च।
5. कला पर तकनीक का प्रभाव। : गूगल सर्च।
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